है नमन उनको जिन्होंने देश को हर क्षण था पूजा
मातृभक्ति के सिवा उनका न कोई लक्ष्य दूजा
वो कि जो हिंदुत्व में हर पल सदा सुख ढूंढते थे
वो कि जो अस्तित्व का हित भाषणों में बोलते थे
वो कि जो निज धर्म हेतु जान देना जानते थे
वो कि जो सर्वस्य अपना संघ को ही मानते थे
वो कि जो निर्भीक होकर सत्यपथ चुनते हमेशा
वो कि जो निःस्वार्थ रहकर पथप्रदर्शक थे हमेशा
वो कि जो मौन रहकर भी बहुत कुछ बोलते थे
वो कि जो निश्छल हंसी में सर्वदा ही दीखते थे
वो कि जो दंडित हुए जब द्रोहियों के आशय को तोडा
वो कि जो जबह किये जब भंग से खुद को था जोड़ा
वो कि जो क्रोधित हुए आराध्य पर जब आंच आई
वो कि जो विस्मित हुए जब कारगिल ने चोट खाई
वो कि जिनकी बंदगी भी राष्ट्रध्वज तक वद्ध थी
वो कि जिनकी पीयूष वाणी देशद्रोह प्रति क्रुद्ध थी
वो जिन्होंने 'संवाद' को शीर्ष से भू तक निभाया
वो जिन्होंने 'प्रेरणा' का सूत्र अवनि पर था लाया
प्रस्तावना
आशा उत्तर प्रदेश में 17 अगस्त 1955 को जन्मे आधी श्री के पिता श्री जगदीश नारायण भटनागर एक राजकीय विद्यालय में प्रधानाचार्य पद से सेवानिवृत्त और माता श्रीमती उषा ग्रहणी परिवार में अधिक जी से छोटी एक बहन पूनम तथा अवनीश आशुतोष और आशीष प्रारंभिक शिक्षा आगरा के विभिन्न विद्यालयों में हुई अध्ययन के साथ-साथ अन्य साहित्य के प्रति रुचि वाले काल से ही थी क्योंकि जीवन पर्यंत फनी रही स्कूल के दिनों में ही चांद पत्रिका का बलिदान उसी से अंग्रेज सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था क्योंकि उसमें क्रांतिकारियों के जीवन की घटनाएं छपी थी कई बार पढ़ लिया था अन्य धार्मिक साहित्य पुस्तकों की भी संख्या शहंशाह देखी होगी जिन्हें उन्होंने मित्रों पुस्तकालयों तथा फुटपाथ पर पुरानी पुस्तकें बीच में बालोतरा से लेकर पढ़ लिया था हृदयांग कर लिया था घर के निकट ही सरस्वती विद्या मंदिर इंटर कॉलेज विजय नगर में संघ की शाखा लगती थी केंद्रीय हिंदी संस्थान के छात्रावास के निकट एक शाखा होने के कारण अन्य अन्य प्रांतों से प्रशिक्षण प्राप्त करने हेतु आए स्वयंसेवक बंधुओं का इसी शाखा पर आना होता था इन्हीं में से एक थे महाराष्ट्र से आए हुए कार्यकर्ता श्री विनोद रामलाल पराग क्योंकि विजयनगर शाखा के कार्यवाहक थे रांची अपने प्रशिक्षण की पाठ योजना के अंतर्गत शैक्षणिक अभ्यास के लिए उच्च विद्यालय में जाते थे जिसमें श्री आशीष जी के पिता जी अध्यापक थे इसी पैसे के माध्यम से प्रधान जी का घर आना और छोटे भाई अपने स्कूल शाखा आने के लिए आग्रह करना प्रारंभ हुआ अदृश्य उन दिनों 10वीं की बोर्ड परीक्षा में व्याख्याता परीक्षा समाप्त होने के उपरांत में भी शाखा जाऊंगा ऐसा उन्होंने वचन दिया बाद में 1968 के मई माह का कोई दिन होगा जिस दिन इसी सरस्वती विद्या मंदिर विजय नगर के प्रांगण में लगने वाली शाखा से अधिक का संघ प्रवेश एवं स्वर्गीय स्वर्गीय लाचा राम जी तोमर कालांतर में विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के साथ राष्ट्रीय संगठन मंत्री उस समय सरस्वती विद्या मंदिर इंटर कॉलेज के प्रधानाचार्य और संघ के जिला बौद्धिक प्रमुख थे उनका आवास विद्यालय परिसर में ही संस्थान के एक छोर पर था लज्जा राम जी के संपर्क में आने से जैसे आशीष जी के जीवन की दिशा ही बदल गई स्कूल का संकोची अंतर्मुखी परंतु प्रतिभाशाली किशोर एकाएक प्रखर नेतृत्व क्षमता संपन्न राष्ट्र और समाज के लिए कुछ करने को आप कल तरुण के रूप में विकसित हो गया अधीक्षक के अध्ययन की रुचि थी और लज्जा राम जी के पास पुस्तकों का अथाह भंडार विवेकानंद साहित्य श्री अरविंद साहित्य हिंदी साहित्य की ना जाने कितनी अमर प्रतियां साथ ही सांग साहित्य का खजाना मानुपात्र की प्रतीक्षा कर रहा था राजा राम जी के सतत मार्गदर्शक इयत्ता व्यक्ति को पुष्टि आध्यात्मिक चिंतन अध्ययन और योग का अभ्यास करवाया टमाटर संभवतः तरुण अवस्था में मनोयोग पूर्वक किए गए इसी योग और अध्यात्म का प्रभाव आजीवन अथिशी के मानव मस्तिष्क पर बना रहा इसलिए वे फोजन वस्त्र की चिंता से मुक्त रहें और शायद इसे लेकर जो की असहनीय पीड़ा का भी वे कष्ट शरीर को है मुझे नहीं कह कर हंसते हुए सामना करते रहे तरुणाई की उस समय और समाज के लिए कुछ करने के भाव इसी के चलते कुछ मित्रों को साथ लेकर उन्होंने भारतीय तरुण संघ का गठन किया था स्तर पर कुछ कार्यक्रम भी आयोजित किए स्वामी विवेकानंद विचार केंद्र तथा स्वाध्याय मंडल से भी जुड़े स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविंद के जीवन को किसी ने सदैव प्रेरणादाई माना 1971 में अभी से नहीं आ रहा कॉलेज में बीएससी जीव विज्ञान में प्रवेश किया इसी वाइस पर विजय नगर शाखा के मुख्य शिक्षक हुए और भले ही यह एक संयोग ही वह परंतु ए काश चकित कर देने वाला तथ्य संघ इतिहास से जुड़ जाता है अधिक से जो सांखला प्रारंभ हुई उनके भाग्य शाखा के बनने वाले थे और मुख्य शिक्षक प्रचारक रख लेकर निकले जिनमें से एक दो को छोड़कर शेष सभी आज तक जीवन रति कार्यकर्ता के रूप में संघ कार्य में लगे हुए हैं ना अनुपयुक्त ना होगा कि सभी के लिए प्रेरणा पुरुष के रूप में अधिक ही रहे क्योंकि दायित्व में वृद्धि होने पर भी अपने मूल शाखा के कार्यकर्ताओं के विकास और योग क्षेम की चिंता अधिक वर्षा नववर्ष करते रहे प्रचारक जीवन में भी जब कभी भी आगरा गए उन कार्यकर्ताओं के परिवारों में जाना नहीं भूले महाविद्यालय में पहुंच गए किसी ने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संपर्क में आए मुख्य शिक्षक के नाते पाक को आदि में राजा की मंडी स्थित संघ कार्यालय जाना होता ही था उसी से लगा हुआ विद्यार्थी परिषद कार्यालय शुद्धि सभा भवन उनकी गतिविधियों का केंद्र बना आगरा कॉलेज इकाई के मंत्री और उसके बाद आगरा महानगर इकाई के मंत्री का दायित्व अभिषेक ने अत्यंत कुशलतापूर्वक निभाया 1973 में उन्होंने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में कार्य करना प्रारंभ किया और आशीर्वाद के संगठन मंत्री का दायित्व उन की ओर आया उस समय तक पूर्ण कालिक विस्तारक और विद्यार्थी विस्तारक कि आरक्षण में ही निर्धारित हुई थी जून 1974 में छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्यारोहण की शताब्दी समारोह का भव्य आयोजन किया गया इस समय विद्यार्थी परिषद की राष्ट्रीय कार्यसमिति एवं प्रतिनिधि सभा की बैठक आगरा में आयोजित की गई सरस्वती विद्या मंदिर इंटर कॉलेज में ही संपन्न हुई इस बैठक की व्यवस्था का दायित्व की ओर ही था आदित्य ने भी ऐसी पूर्ण कर लेने के उपरांत इसी वर्ष विधि स्नातक में आगरा कॉलेज में ही प्रवेश लिया और तब तक उनकी छवि एक प्रखर वक्ता कुशल संगठक रणनीतिकार और थे के प्रति समर्पित कार्यकर्ता और जुझारू छात्र नेता के रूप में स्थापित हो चुकी थी गुजरात के नाम निर्माण आंदोलन से उठे छात्र शक्ति के जो आज के बिहार के युवाओं को झकझोरा और देश भर में परिवर्तन की बयार बह निकली युवाओं की आंदोलन को जयप्रकाश नारायण ने नेतृत्व देना स्वीकार किया 1974 में मुंबई में हुए विद्यार्थी परिषद के अधिवेशन में देशव्यापी आंदोलन का बिगुल फूंका गया आंदोलन में संघ तथा सहयोगी संगठनों की भूमिका क्या और कितनी है इस संदर्भ में निराला नगर लखनऊ में हुई उस बैठक जिसमें नानाजी देशमुख और स्वर्गीय भाव राव जी देवराज का मार्गदर्शन हुआ था सतीश ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में गहन अस्वस्थता में भी किया 1975 के जून माह की 26 तारीख को देश में आपातकाल की घोषणा हुई देश और लोकतंत्र पर हुए इस पहाड़ के विरुद्ध भूमिगत आंदोलन प्रारंभ हुआ भूमिका का आंदोलन के साहित्य का वितरण सूचनाओं का आदान प्रदान सत्याग्रह के माध्यम से जेल भरो आंदोलन के कार्यकर्ताओं से चर्चा भाजपा सत्याग्रह का स्थान व स्वरूप तय करने जैसे कार्यों से लेकर आपातकाल विरोधी पर्चे बांटने और पोस्टर चिपकाने तक के कार्यों के लिए युवा कार्यकर्ताओं की टोली की आवश्यकता थी उसके अगुआ बने अदिश जी उनकी कल्प कथा ऑडियो जनता का प्रत्यक्ष परिचय उस संक्रमण काल में ही सामने आया तानाशाही का पर्याय बन चुके तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी जी की उपस्थिति में ही आगरा कॉलेज के प्रांगण में अत्यंत कड़ी सुरक्षा व्यवस्था को बेचकर इंदिरा गांधी का ही पुतला दहन स्थानीय प्रशासन को हिलाकर रख देने वाली घटना थी इसके सूत्रधार अदिति l.l.b. की कक्षा में बैठे इंडियन पैनल कोर्ट का व्याख्यान सुन रहे थे परंतु 114 की घटनाओं पर उनकी पैनी दृष्टि रखे हुए कौन सा कार्यकर्ता की ओर से और क्या लेकर आएगा और पुतला दहन होने के बाद किस मार्ग से पुलिस से बचकर जाएगा का योजनाकार केवल दर्शक की भूमिका में था पुलिस की गिरफ्तारी से बचने के लिए नहीं पर आगामी कार्यक्रमों की रचना के लिए पुलिस की सीधी नजर में नहीं आना ऐसा संगठन का निर्णय था इसलिए इसी बीच राष्ट्रकुल देशों के राष्ट्राध्यक्ष हो तथा अन्य प्रतिनिधियों की नई दिल्ली कि मैं आयोजित पाठक के अवसर पर उनका ताजमहल और आगरा किला देखने आने का कार्यक्रम तय हुआ प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस बैठक में विदेशी प्रतिनिधियों के समक्ष आपातकाल घोषणा को न्याय संगत से तय करने के लिए अन्यतम प्रयास किए थे आचार्य विनोबा भावे जैसे प्रख्यात संत और समाज के अग्रणी पुलिस तक इसे अनुशासन पर्व की संख्या से अभिषेक कर चुके हो उस आपातकाल के पीछे के साथी को भी विश्व पटल पर सबके सम्मुख रखा जाना चाहिए ऐसा मैंने हुआ था इस चुनौती को स्वीकार करें यह व्यवस्था के बीच विदेशी प्रतिनिधियों तक पहुंच पाना असंभव था इस कार्य के लिए भी अधिक जी स्वयं आगे आए अपने सारे योग्य और दूसरा हास्य सहयोगी मित्रों के साथ आश्चर्य आगरा किले के अमर सिंह मुख्य द्वार पर कुछ क्षणों के भीतर ही लगभग 20 25 विदेशी प्रतिनिधियों को उस भूमिका साहित्य की प्रतियों का वितरण कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के मध्य हुआ और पांचों में से किसी भी कार्यकर्ता की गिरफ्तारी नहीं हुई सुरक्षाकर्मी जब तक वह साहित्य को और वितरण के उद्देश्य को समझ पाते तब तक सब के साथ लावे की तरह छूमंतर दुर्भाग्य से उन पांचों में से अधिक जी सहित दीनबंधु अब हमारे बीच नहीं हैं सांप और तत्कालीन जनसंघ के अधिकांश वरिष्ठ कार्यकर्ता जेल में थे संघ के नाम के साथ आगे पढ़ने वाला व्यक्ति जेल जाएगा ही यह भी निश्चित था ऐसी स्थिति में भी आदेश से आगरा के वरिष्ठ सर्वोदय कार्यकर्ता श्री चमन लाल जैन जो कि स्वयं भी निशा मंदी थे के परिजनों के माध्यम से आगरा के लिए तत्कालीन कांग्रेसी लोकसभा सदस्य आंचल सिंह से मिले उनके संरक्षण में आनन-फानन में वंदे मातरम शताब्दी समारोह समिति नाम से एक समिति का सार्वजनिक कार्यक्रमों के लिए सरकारी मान्यता प्राप्त मंच उपलब्ध हो गया आगरा कॉलेज के गंगाधर शास्त्री सभागार में इसी मंच के तहत विचार गोष्ठी और एक ऐतिहासिक कवि सम्मेलन हुआ जो बाद में इस कारण चर्चा का विषय बना कि कांग्रेसी सांसद कि मंच पर उपस्थित होते हुए भी उसी मंच पर आपातकाल विरोधी काव्य रचनाओं का पाठ हुआ तेरे दिसंबर 1976 की आज रात्रि में जिलाधिकारी कार्यालय की दीवार पर पोस्टर चिपकाते हुए पुलिस ने सूर्यकांता भूमिगत आंदोलन में अतिथि का छद्म नाम और उनके साथी प्रेम किशोर रावत को गिरफ्तार कर लिया आगरा का रकाबगंज थाना आपातकाल के दौरान पुलिस के अत्याचारों के लिए कुख्यात था इसी थाने में अतिथि के तौर पर शरीर को मानसिक यातनाएं देकर भूमिगत आंदोलन की गतिविधियों आंदोलन सहित साहित्य के प्रकाशन वितरण के ठिकानों कार्यकर्ताओं के नाम पते आज की पूछताछ की गई परंतु पुलिस सारे हथकंडे और अमानवीय अत्याचारों के बाद भी कुछ जानकारी निकलवा सके थाने में दी गई यात्राओं के कारण शरीर को जेल में कार्य करते हैं
कभी कभी हमारे जीवन में कुछ पल ऐसे आते हैं जो हमारे जीवन को एक नयी दिशा दे देते है। बचपन में कहानियाँ और कवितायेँ सुनते और पढ़ते समय बहुत आश्चर्य होता था कि कुछ नया और आकर्षक कैसे लिखा जा सकता है, इतने विचार कहाँ से आते हैं हमारे मस्तिष्क में ? ये शायद बाल कल्पना थी जिसका जिसका निदान समय ने स्वम ही दे दिया। समय के गर्भ में सभी प्रश्नों का उत्तर मिल ही जाता है बेशक वो हमारी समझ से बाहर होते हैं फिर भी उनका सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ता ही है। आपके पास इससे भागने का न तो विकल्प ही होता है और न ही क्षमता। 5 जुलाई 2007 मेरे जीवन का शायद ऐसा ही एक क्षण था जब मैंने एक ऐसे अस्तित्व को खोया जिसके विषय में मुझे उनके पंचतत्व में विलीन होने के पश्चात ही आभास हुआ कि मैंने एक ऐसे महापुरुष को खोया है जिसके बारे में पूरी दुनिया जानती थी शायद सिवाय मेरे। वो बस मेरे लिए इसलिए पूज्य थे क्योकि वे मेरे मामाजी थे, दुनियों की नजरों से न तो मैंने उन्हें देखा ही था और न ही कभी कोशिश ही की थी, बल्कि सच तो यह है कि उनके पद का गरिमा का आभास भी मुझे उनके मृत्योपरांत समाचार पत्रों और सभाओं से ही प्राप्त हुआ। जून १९८१ में ही वे पूर्णकालिक निकल गए थे इसलिए वे अधिकतर प्रवास पर ही रहते थे घर आना तो विशेष परिस्थितियों पर ही निर्भर करता था तो हमारे भेंट की सम्भावना तो बहुत कम ही थी और उस पर भी हमारे लिए समय मिलना तो 'पढ़ाई कैसी चल रही है' के अतिरिक्त लगभग असंभव ही था। हालाँकि ऐसा भी नहीं है कि हमे इस पर बहुत अधिक ग्लानि है कि हम उनसे ज्ञान अर्जित नहीं कर पाए क्योकि वो एक ऐसा समय था जब हम न तो इतनी बड़े ही थे कि सब कुछ समझ सकते थे और न ही इतनी अबोध कि कुछ भी समझने में असक्षम थे, न तो हमे साहित्य से प्रेम ही था और न ही हमारे पास उससे सम्बंधित प्रश्न ही हुआ करते थे जिस पर हम घंटों चर्चा कर सकें। हमारी अंतिम चर्चा भी प्यार से परिपूर्ण स्वाभाविक डाँट थी जो मुझे आजीवन स्मरण रहेगी क्योकि वो सिर्फ अंतिम चर्चा ही नहीं भेंट भी थी उसके पश्चात् तो मात्र अंतिम दर्शन ही संभव हुआ जो मानसिक स्थिति को किंकर्तव्यविमूढ़ कर देने वाला था। उनका जाना असामयिक जरूर था पर अकाल्पनिक जैसा तो कुछ भी नहीं पर फिर भी वो मेरी अंतिम बातचीत होगी इसकी कल्पना मैंने कभी नहीं की थी। खैर कहते है न "होइए वही जो राम रचि राखा", कभी कभी तो लगता है कि राम जी पता नहीं क्यों इतना रचते रहते है परन्तु अस्वीकृति का तो प्रश्न ही नहीं बनता। क्योकि न तो राम जी रचना बंद करने वाले है और न ही हम अपेक्षा करना। चूँकि जुलाई का प्रारंभिक सप्ताह था और मुझे विद्यालय सत्र प्रारम्भ हो जाने के कारण घर जाना आवश्यक था इस कारण मैं शायद उन्हें पूछने से ज्यादा बताने गयी थी कि मुझे जाना होगा। इस पर उन्होंने स्वाभाविक प्रश्न किया कि 'क्यों जा रहे हो?' मैंने संकोचवश मात्र सिर नीचे किया और बस इतना ही कहा कि 'ऐसे हीं'। वो थोड़ी देर शांत रहे फिर बोले कि 'कक्षाएँ प्रारम्भ हो रही है तो सीधे सीधे बताओ न, ऐसे ही क्या होता है ' और मुस्कुरा दिए। मेरे मुँह से कुछ भी नहीं निकला और मैं चुपचाप उनके कमरे से बाहर आ गई। पर फिर भी मैं शायद परिस्थिति की गंभीरता को बहुत निकट से नहीं समझ पाई थी। पर समय की धारा अपने साथ किसे और कब बहा कर ले जाये इसका अनुमान लगाना नामुमकिन है, इस परिस्थिति ने कम से कम इतनी शिक्षा तो ग्रहण करवा ही दी थी। इसके बावजूद हमारे विचारों और कर्मों में उनका अंशमात्र भी स्नेहिल हो तो भावी देश के स्वर्णिम भविष्य के लिए एक आहूति ही होगी.....
भारत: हिन्दू राष्ट्र
संघ का शिविर और बौद्धिक सत्र यानि राष्ट्र धर्म रुपी यज्ञ में एक और आहुति। एक तरफ उत्सुकता और जिज्ञासा, वहीँ दूसरी तरफ राष्ट्रविरोधियों के प्रति ज्वाला। फिर जब विषय ही राष्ट्र प्रेम से जुड़ा हो तो वाणी कहाँ थम सकती है वो भी तब जब प्रश्न देश के सम्मान और अस्तित्व का हो। इसी क्रम में प्रश्नोत्तरों की अविरत शृंखला और यथार्थ दर्शन।
हमारे देश का क्या नाम है?
(समान्यत: बैठक की परम्परा रहती है कि जिनको उस प्रश्न का उत्तर देना होता है वो अपना दाहिना हाथ पूरा ऊपर करेंगे, और जिससे पूछा जायेगा वो अपने स्थान पर खड़ा होकर उसका उत्तर देगा करेंगे, और जिससे पूछा जायेगा वो अपने स्थान पर खड़ा होकर उसका उत्तर देगा। उत्तर देना माने संझेप में उत्तर देना, वो पूरा भाषण का विषय न बन जाये। जो पूछे जितना मालूम हो, उतना उत्तर देना।)
तो जरा बताना कि क्या नाम है अपने देश का?
भारत वर्ष।
मैं यहाँ एक नाम लिख देता हूँ भारत वर्ष। ठीक है।
और किसी नाम से अपने देश की पहचान होती है?
हिन्दुस्थान ।
कैसे लिखा जाता है भई हिन्दुस्थान? ठीक लिखा है ये शब्द? तो इसका ठीक क्या होगा भई? हिंदुस्तान। इन दोनों में अंतर क्या हुआ भई। त और थ का अंतर। त और थ का अंतर तो दिखाई देता है पर इससे इसके अर्थ में कोई अंतर आ गया क्या? हिंदुस्तान, ये इस्लामिक शैली का एक शब्द है। ये किसी भी शैली का शब्द का कोई अर्थ तो होता होगा न। अगर इसका संधि विच्छेद करेंगे तो क्या बनेगा, ये बनेगा हिन्दू + अस्तान। और हिन्दुस्थान का संधि विच्छेद करेंगे तो ये बनेगा हिन्दू + स्थान। हिन्दुस्थान का अर्थ तो ठीक समझ में आता है कि हिन्दुओं के रहने का जो स्थान है यानि जहाँ हिन्दू रहते है, वो स्थान हिन्दुस्थान कहलाता है। अस्तान एक पारसी भाषा का शब्द है और पारसी भाषा के इस शब्द का अर्थ होता है "boundary Line". सीमावर्त से घिरा हुआ स्थान। जैसे एक शब्द है आप लोगों ने सुना होगा कब्रिस्तान , जिस क्षेत्र के अंदर कब्रे बनाई जाती है इसके बाहर कब्र नहीं बनाई जाएगी। ये कब्र की सीमा है इसके बाहर कब्र नहीं बननी चाहिए उसे क्या बोलेंगे कब्रिस्तान। जब हम ये कहते है कि ये हिंदुस्तान है तो इसका अर्थ कि ये हिन्दुओं की boundry Line है इसके बाहर इन लोगो को नहीं जाना चाहिए। ये हिन्दुओं की एक सीमा है लेकिन जब हम ये कहते है कि ये हिन्दुस्थान है तो इसका अर्थ थोड़ा सा बदल जाता है तो ये हिन्दुओं का स्थान हो गया।
अपने देश का कोई और नाम भी बताओ ?
आर्यावर्त।
अपने देश का नाम, ये किसी भी देशभक्त को कम से कम अपने देश का नाम तो मालूम ही होना चाहिए, ये पहली उसकी पहचान है कि हमारे देश का नौजवान कितने ढंग से अपने देश का नाम जानता, पहचानता है। ये शब्द है आर्य+आवर्त। आवर्त माने घिरी हुई तथा आर्य माने श्रेष्ठ लोग, तो श्रेष्ठ लोगो के रहने का, जो उनसे घिरा हुआ जो स्थान है वो क्या है? आर्यावर्त है। तो भारत हो गया, हिन्दुस्थान हो गया, आर्यावर्त हो गया,
और भी कोई अपने देश का नाम है क्या ?
इंडिया। ये इंडिया कैसे हमारे देश का नाम पड़ा ? हमारा देश इंडिया क्यों कहलाता है ? हिन्दुस्थान इसलिए कहलाता है क्योकि ये हिन्दुओं के रहने का स्थान है, आर्यों से घिरा हुआ है, आर्य लोग इस पर रहते थे, इसलिए आर्यावर्त हुआ। ये इंडिया क्यों है भई? क्योकि एंग्लोइंडियन्स यहाँ रहते थे। एंग्लोइंडियन्स, ये क्या बला होती है भई? विदेशियों ने यहाँ आकर शादी की। ये कब आये विदेशी? गाजे बाजे के साथ! अरे भई एंग्लोइंडियन नाम की चीज उससे हज़ार साल पहले से इंडिया, इंडस शब्द का प्रयोग होता रहा है। अगर इंडस नहीं था इंडिया नहीं था तो एंग्लोइंडियन्स कैसे हो गए? तो जो पर्शियन थे, जो विदेशी यूनान से लोग आये, बाकि बाहर से जो लोग आये उन्होंने यूरोप के इतिहासकारों ने भारत के अंदर जब प्रवेश किया तो सबसे पहले भारत की सीमा पर उधर जो नदी मिली, भारत का जो कश्मीर है उसके साथ जो नदी सामानांतर चली, उसका नाम है सिंधु नदी। दुनिया के अंदर सिंधु घाटी की सभ्यता का इतिहास बड़ा प्राचीन है सबसे पहले एक महान, बहुत बड़ी नदी से उनका पाला पड़ा, उसके बाद आगे आये तो, उनके यहाँ 'स' बोलना कठिन है, जैसे हमारे यहाँ उच्चारण में अंतर आ जाता है न एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में, कही खड़ी बोली बोली जाती है, कही ब्रज भाषा, कही मैथिली है। ऐसे ही वहां पर वो लोग 'स' नहीं बोल पाते है, इसलिए 'स' को वो 'ह' बोलते थे, जैसे जिसको हम बोलते है सप्ताह, उनको वो क्या बोलते है, हफ्ता। शब्द वही है लेकिन सप्ताह को वो हफ्ता बोलते है, ऐसे ही उन्होंने सिंधु को क्या बोला हिन्दू। बाद में यूनानियों ने हिन्दू का इंदु कर दिया इंदु नदी थी, इसके किनारे रहने वाले इंडियंस हो गए। इनको ये नहीं मालूम कि सिंधु के पार भी हज़ारों मील दूर तक लम्बा चौड़ा जो दुनिया का सबसे बड़ा मैदान पड़ा हुआ है इसके अंदर हिन्दू ही रहते थे लेकिन ये इंडिया शब्द भी सिंधु नदी के साथ हमारे को जोड़ता है। उस दिन शायद डॉ. आदित्यानंद जी ने बताया होगा कि जिस सिंधु नदी के कारण हम हिन्दू कहलाये, हमारा दुर्भाग्य कि आज वो सिंधु नदी सारी की सारी पाकिस्तान में है, उस सिंधु नदी का कोई हिस्सा हमारे पास अब नहीं बचा। एक नाम ये भी हो गया।
अब ये भारत क्यों कहलाता है ?
भरत के नाम पर।
ये भरत कौन थे ?
राजा दुष्यंत के पुत्र भरत, आपको एक बड़ा अच्छा नाम याद है। हमारे यहाँ का बड़ा प्राचीन व्याख्यान है, शकुंतला और राजा दुष्यंत के पुत्र भरत।
और भी किसी भरत के नाम पर है क्या ये ?
राम के भाई भरत।
लेकिन उनके आने से पहले तो इस देश के अंदर बहुत बड़ा समय बीत चुका था। वो तो बहुत बाद में हुए राम के भाई भरत तो । एक ऋषभदेव जी जैन मत के प्रवर्तक थे, सबसे पहले तीर्थंकर हुए, उनके पुत्र भरत के नाम पर भी इस देश को भारत कहते है। लेकिन भई इतना बड़ा देश, हमारे देश के अंदर एक परम्परा है, अच्छी आदत है, बाकी देशों के अंदर किसी महिला परिचय करवाते है तो कैसे करवाते है वो मिसेज शर्मा है, मिसेज गुप्ता है मिसेज सिंह है, वो क्या है, श्रीमती है किसी की पत्नी है इसके नाते से उसकी पहचान होती है लेकिन हमारे यहाँ क्या है हमारे यहाँ माँ की पहचान उसके बेटे से होती है क्या है, वो देवकीनंदन है, यशोदानन्दन है क्योकि माँ जो है उसके कारण बेटे की पहचान होती है। देवकी का बेटा जो कृष्ण है, यशोदा का बेटा जो कृष्ण है, अपने मोहल्ले के अंदर भी कहते है, कि वो फलानी किसकी रामू की माँ है, ये माँ का सम्मान उसके पुत्र से होता है, श्रेष्ठ पुत्रो से माँ का सम्मान बढ़ता है ऐसे ही चाहे चक्रवर्ती राजा भरत हो, ऋषभदेव के पुत्र भरत हो ये इस देश के अच्छे श्रेष्ठ चक्रवर्ती राजा था, भारत माता के एक श्रेष्ठ पुत्र थे इस नाते से हमने उनका नाम याद किया। लेकिन ये देश तो बड़ा प्राचीन है, उससे पहले क्या इस देश का कोई नाम ही नहीं था ! भरत के पैदा होने से पहले ! भरत के पैदा होने से पहले भी तो आखिर ये कोई देश था, समाज था, संस्कृति थी।
सोने की चिड़िया।
ओहो चिड़िया ही था! सोने की चिड़िया तब नहीं कहलाता था, सोने की चिड़िया तो तब कहलाया जब हम पिंजड़े में आ गए।
देवभूमि।
देवभूमि, ऐसे तो बहुत सारे विशेषण है। हस्तिनापुर तो एक शहर है आज भी है मेरठ जिले के अंदर, मवाना तहसील के अंदर, गंगा किनारे एक पुराना स्थान है हस्तिनापुर करके, हस्ती नाम के एक राजा थे कुरुवंश के अंदर, उन्होंने उस नगर को बसाया था इसलिए उसका नाम हस्तिनापुर पड़ा, ये तो मुश्किल से 6000-7000 साल पुरानी घटना होगी राजा हस्ती की तो। लेकिन भारत तो हज़ारो हज़ारो नहीं, लाखो-लाखो साल पुराना है हमारा यहाँ सृष्टि का जो सम्वत गिना जाता है वो गिना जाता है एक अरब अट्ठानवे करोड़ कितने लाख साल, गिनती भी लगाओ तो मुझ जैसे को तो याद भी नहीं होती गिनती, आप में से कोई ज्यादा पढ़ा लिखा हो तो याद कर लेना। तो कितने अरब और कितने करोड़ साल का इतिहास है हमारे देश का, तो क्या इससे पहले कोई नाम ही नहीं था हमारे देश का ! नाम था, लेकिन नाम की एक परंपरा है, नाम कौन रखता है, बाहर के लोग नहीं रखते, नाम वो रखते है जो घर का पालन पोषण करते है, बच्चे का नाम कौन रखेंगे ? उसके माता पिता, उसके दादा-नाना, ऐसे ही जिन्होने हमारे देश का, हमारी संस्कृति का निर्माण किया, ऐसे लोगो ने हमारे राष्ट्र का नाम रखा, देश का नाम रखा। और देश का नाम क्यों रखा जाता है, जैसे किसी बच्चे का नाम रखते है। नाम रखते समय क्या ध्यान रखते है, अब ये तो विदेशी परंपरा आ गयी हमारे देश के दुर्भाग्य से कि हम चिंटू पिंटू लॉली पॉपी अपने घर के अंदर देखने लगे। अंग्रेजो के यहाँ जो कुत्तो का नाम होता है वो हमारे घर के बच्चो के नाम होने लगे। लेकिन हमारे यहाँ हमेशा नाम किस पर रखे जाते थे किसी अच्छे गुण के ऊपर, किसी अच्छे महापुरुष के ऊपर, किसी अवतारी पुरुष के ऊपर, किसी बलिदानी पुरुष के ऊपर, हमारे यहाँ के नाम होते थे। महिलाओं के भी, पुरुषो के भी, सबके नाम ऐसे ही रखे जाते थे। यशोदा, यशोदा माने जो यश देने वाली हो। नाम है, उसका अर्थ भी समझते है हम लोग। किसी का नाम रखते है शांति क्योकि शांति की उससे अपेक्षा रखते है। किसी का नाम रखते है आनंद माने वो प्रसन्न रहे उसके गुण ऐसे हो। किसी महापुरुष के नाम पर रखते है, राम के, कृष्ण के, शिवाजी के, प्रताप के, किसी के नाम पर उसका नाम रखते है तो जब ध्यान आता है तो उसके मन में आता है कि राम कैसे थे, मेरे अंदर भी राम का गुण आ सकता है क्योकि मेरा नाम राम है। राम कुमार हो, रामनारायण हो, राम सिंह हो। लेकिन हमे अंग्रेज ने सबसे पहले क्या सिखाया कि यदि ये सीख गया कि राम, कृष्ण क्या थे, एकानंद दयानन्द क्या थे, विक्रमादित्य, अशोक क्या थे तो ये तलवार उठा लेगा, हमे भगा देगा इसलिए उन्होंने हमारे नाम रखने शुरू कर दिए डॉली, लॉली, पम्पु, चम्पू, पता नहीं क्या क्या नाम। तो ये जरा अपने देश की वृत्ति को समझना चाहिए तो इसलिए हमारे देश का, हमारे राष्ट्र का निर्माण किन्होंने किया ये देवताओं के द्वारा निर्मित देश है
“तं देवनिर्मितं देशं हिंदुस्तानम प्रचक्षते
उत्तरं यद् समुद्रस्य हिमादृश्य दक्षिणं
वर्षं तव भारती नाम: भारती तत्र संतति”
उत्तर में हिमालय है दक्षिण में समुद्र के बीच में घिरा हुआ जो क्षेत्र है ये भारत कहलाता है और यहाँ के रहने वाले भारती कहलाते है ये श्लोक है संस्कृत के पुराने, धर्म शास्त्र के अंदर है, वीर सावरकरजी ने परिभाषा दी है इसकी। ऐसे अनेक श्लोक हमारी संस्कृति के अंदर आते है, इन्हे याद करना चाहिए और मौका मिल जाये तो बौद्धिक विभाग से पूछकर अपनी डायरी कॉपी में लिखने चाहिए। तो मै ये कह रहा था कि ये जो नाम हमारे देश का भारत पड़ा ये ऐसे ही नहीं पड़ा। भारत नाम किसी का नहीं होता हमारे यहाँ। भारत, जैसे आपने हिंदुस्तान का संधि विच्छेद किया, आर्यावर्त का संधिविच्छेद किया ऐसे ही भारत शब्द भी संस्कृत की जो 'भ' धातु है उसमे जब 'रत:' प्रत्यय लगता है तब ये शब्द बनता है भारत। 'भ' शब्द का अर्थ होता है ज्ञान, प्रकाश, अन्न और 'रत' माने ‘लगा हुआ है’। विश्व के अंदर जो ज्ञान, प्रकाश फ़ैलाने में, दुनिया को सुख सम्पन्नता, अन्न देने में जो लगा हुआ है वो भारत है इसलिए जब तुलसीदास जी ने चारो भाइयो के नामकरण की सारी घटना लिखी है तो उन्होंने चारों भाइयों का नाम लिखते समय भरत के नाम की क्या व्याख्या की
“विश्व भरण पोषण कर जोई, ताकर नाम भरत अस होई”
जो विश्व का भरण पोषण करता है उसका नाम भरत है। हमारे ऋषि मुनियों ने जिन्होंने हमारे राष्ट्र का निर्माण किया जिन देवताओ के द्वारा इस राष्ट्र का निर्माण हुआ उन्होंने हमारे सामने यश रखा, उन्होंने सारी दुनिया का ज्ञान बढ़ाया, सारी दुनिया को प्रकाश जगाया, सारी दुनिया का भरण पोषण का दायित्व हमारे ऊपर है। हमारे पास दुनिया से भीख मांगने का काम नहीं दिया गया था। तो जो भारत का पुत्र है वो भरत है। भारत माता की संतान जो भरत है उसकी ये जिम्मेदारी है कि वो सारी दुनिया का ज्ञान बढ़ाये। सारी दुनिया के अंदर हमारे ऋषि मुनियों ने जाकर अपने ज्ञान का प्रकाश फैलाया। मनुस्मृति के अंदर एक श्लोक आता है
“एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवाः”
हमारे यहां के अग्रगण्य लोगों ने जाकर, हमारे यहाँ के जो ऋषि थे, हमारे यहाँ के जो सन्यासी थे, उन्होंने जाकर सारी दुनिया को, पृथ्वी के सब मानवो को हमारे यहाँ के अग्रगण्य लोगो ने, हमारे यहाँ के जो ऋषि थे, सन्यासी थे, हमारे यहाँ के जो वैज्ञानिक थे, उन्होंने जाकर सारी दुनिया को ज्ञान-विज्ञान दिया। और इसलिए हमारे देश का नाम पड़ा भारत। ये सब नाम कोई संघ वालो ने शुरू कर दिए ! लोग कहते है कि भारत को हिंदुस्तान कहना संघ वालो ने शुरू कर दिया। हम तो भारत माता की जय बोलते है। अरे भारत भी हमारा है और भारत माता की जय हम भी प्रार्थना में बोलते है, हमारी प्रार्थना की अंतिम पंक्ति क्या है? भारत माता की जय। हम अपनी प्रार्थना के दूसरे श्लोक में भी क्या कहते है
"प्रभो शक्तिमन् हिन्दुराष्ट्राङ्गभूता
इमे सादरं त्वां नमामो वयम्"
हम हिन्दू राष्ट्र के घटक है, और इसलिए हम आपको सादर नमस्कार कर रहे है। हमने अपने को हिन्दू भी कहा, हमने अपने को भारती भी कहा, हम तो है, हमारी संस्कृति जो है वो आर्य है, दुनिया के अंदर श्रेष्ठता हमारे अंदर है। आर्य नाम की कोई जाती नहीं पाई जाती। कई बार ऐसी ग़लतफहमी हमारे इतिहासकारो ने, अंग्रेजो ने हमारे देश के अंदर इस ढंग से फैलाई, एक जाति थी, उनका रंग गेहुआँ था, वो लम्बे थे, उनके बाल घुंघराले थे, नाम लम्बी थी, ठोड़ी चौड़ी थी, उनके जबड़े मजबूत थे, उनकी आँखे काली थी और वो भेड़ -बकरियाँ, गाय-भैंस चराते थे और वो मध्य एशिया में पामीर के पहाड़ के पास रहते थे वहां से वो चले चरागाह में हिंदुस्तान में आये और हिंदुस्तान के अंदर जो लोग रहते थे उनको उन्होंने पराजित कर दिया, हराकर उनको दक्षिण में ढकेल दिया वो द्रविड़ थे और आर्यों ने आकर उत्तर भारत पर कब्ज़ा कर लिया इसलिए उसका नाम आर्यावर्त रख दिया गया। ये कहानी इतिहास में सबने पढ़ी है न ! (18:44-18:47) ये सब क्या है, अगर आर्य नाम की कोई जाति है, जातिसूचक शब्द होता आर्य, लम्बा, गोरा, लम्बी नाक, मजबूत ठोड़ी और मजबूत जबड़े वाला कोई आर्य व्यक्ति होता तो हमारे ऋषियों को वेदों के अंदर बोलने की क्या जरुरत पड़ गयी कि हम क्या करेंगे, सारी दुनिया को आर्य बनाएंगे। "कृण्वन्तो विश्वमार्यं"। अगर सारी दुनिया को आर्य बनाएंगे हम तो, जातिसूचक, तो अफ्रीका के काले हवशियों ने गोरा कैसे करोगे, इंक पोतोगे उनके ऊपर ! सफेदी करा दें, आर्य बनाना है हवशियों को या चीन के मंगोलिया के इलाकों में जो छोटे छोटे से लोग है उनको क्या करोगे लम्बे खिचवाके आर्य बना रहे है इनको, बनवा दें आर्य। आर्य बनाने का ये अर्थ नहीं है, आर्य नाम की कोई जाति नहीं थी। अंग्रेजो ने हमारे देश के अंदर ये ग़लतफहमी पैदा की कि आर्य नाम की कोई जाति थी जो विदेशी आक्रमणकारी पर भारत में आयी। आर्य गुणवाचक शब्द है। हमने कहा कृण्वन्तो विश्वमार्यं, हम अच्छे लोगो का, दुनिया के अंदर श्रेष्ठ लोगों का निर्माण करेंगे, संस्कारित लोगों का निर्माण करेंगे, एक दूसरे के लिए सहयोगी होंगे, एक दूसरे को सुख दुःख में भागीदारी करेंगे, ज्ञान-विज्ञान में ओत-प्रोत होंगे। ऐसे श्रेष्ठ लोग तो दुनिया के हर देश में पाए जा सकते है। अगर अमेरिका के अंदर कोई अच्छा व्यक्ति होगा तो उसको आर्य कहोगे कि नहीं कहोगे। तो दुनिया के आर्य, ये कोई जातिसूचक शब्द नहीं था, ये गुणवाचक शब्द है। अच्छे श्रेष्ठ लोग जहाँ रहते थे वो आर्यावर्त था। हम गौरव के साथ कहते है कि हम आर्यों के उन श्रेष्ठ पूर्वजो के वंशज है, और इसको कहने में हमे गर्व होना चाहिए। तो इसलिए हमने क्या कहा कि हमारे देश भारत भी है, हमारे देश का नाम आर्यावर्त भी है, हमारे देश का नाम हिन्दुस्तान भी है। दुनिया के लोग इसे इंडिया के नाम से भी जानते होंगे लेकिन कभी किसी प्रॉपर नाम का ट्रान्सलेशन करो तो बदल जाये उसके अंदर शब्द ? किसी का नाम मान लो सूर्यप्रकाश है और उसको कहोगे कि अपना नाम अंग्रेजी में लिखो तो क्या लिखेगा ? "Sunlight"। लिखेगा ? नहीं लिखेगा। अच्छा चन्द्रप्रकाश का मूनलाइट लिख दो आप, नहीं हो सकता क्योकि सूर्यप्रकाश, सूर्यप्रकाश ही रहेगा, चन्द्रप्रकाश, चन्द्रप्रकाश ही रहेगा। जिसका जो नाम है वही नाम रहने वाला है क्योकि ये प्रॉपर नाम है, कॉमन नाम नहीं है। और इसलिए अगर भारत उसका नाम है तो भारत ही रहेगा इंडिया कैसे हो जायेगा ! इंडिया उसका विशेषण हो सकता है, सोने की चिड़िया उसका विशेषण हो सकता है, लेकिन दूसरे देश वाले हमारे देश का नामकरण कैसे कर देंगे। हमारे देश का दुर्भाग्य कि आज़ादी आने के बाद हमारे संविधान के अंदर क्या लिखा गया इंडिया i.e. भारत। इंडिया जो कि भारत है। हमारे संविधान का पहले पहला वाक्य है कि इंडिया i.e. भारत। तो हमारा देश इंडिया i.e. भारत नहीं है हमारा देश भारत i.e. हिंदुस्तान। तो ये अपने देश के नाम अपने ध्यान में ध्यान में आने चाहिए, मैंने बड़ी छोटी सी बात आप लोगो से पूछी, आप लोगो का स्तर तो बहुत बड़ा था। हिन्दुस्थान है तो कई बार एक प्रश्न आता है कि ये हिंदुस्तान हिन्दू-हिन्दू कहकर कोई हिन्दू महासभाईयों ने, कोई संघ वालो ने , कोई आर्यसमाजियों ने , कोई ऐसे जो हिंदूवादी संगठन है, हिन्दुस्तान रखा। तो ये हिंदुस्तान नाम किन्हीं भी करने कारणों से रखा गया होगा लेकिन हमारे देश में कब से है, तो शायद हज़ारो वर्ष हो गए होंगे।
हमारे हिंदी का पहला ग्रन्थ कौन सा है, पहला काव्यग्रंथ जो हिंदी में लिखा गया वो कौन सा है भई ?
ऋग्वेद।
ऋग्वेद हिंदी में नहीं है भई। वो किसमें में है ? संस्कृत में है।
हिंदी में कौन सा काव्य ग्रंथ लिखा गया? भई देखो बड़ी जोर से हम हिंदी का समर्थन करते है दुनिया के अंदर, हिंदी में कौन सा पहला ग्रंथ लिखा गया जो आज उपलब्ध है ?
रामायण।
नहीं भैया रामायण तो अभी ४०० साल पहले लिखी गई, ४५० साल पहले।
महाभारत।
महाभारत हिंदी में नहीं लिखा गया।
राम चरित मानस।
मानस तो लगभग १५५० के आसपास लिखी गई, यानि कितने वर्ष हुए ४००-४५० वर्ष। अकबर और तुलसीदास लगभग समकालीन थे। हिंदी का जो पहला ग्रंथ आज उपलब्ध है उसका नाम है "पृथ्वीराज रासो"। किसने लिखा ? चंद्रवरदाई ने। किसके लिए लिखा ? पृथ्वी राज चौहान के लिए। याद रखो भई, अपने देश की इतनी महत्वपूर्ण घटना है। पृथ्वीराज के साथ सारा दिल्ली का अंतिम हिन्दू राजा चला गया। पृथ्वीराज की जो उसने विरुदावली लिखी है उसमे भी उन्होंने लिखा है
"अटल राज अजमेर , अटल हिन्दू स्थानम"
उनको हिन्दू अधिपति कहकर विशेषण दिया उन्होंने यानि पृथ्वीराज के समय तक हमारे देश की हमारे राजा की पहचान हिन्दू अधिपति और हिंदुस्तान के नाते हो गई थी। पृथ्वीराज का कालखंड कितना होगा ? लगभग-लगभग एक ७०० वर्ष, ११७३, १२ वीं शताब्दी, ८०० वर्ष का पुराना इतिहास है यानि कि उससे पहले से भी हम सारे देश के अंदर हिंदुस्तान के नाम से सारी दुनिया में पहचाने जाने लगे थे, हिन्दू के नाम से। पिछले हज़ार वर्ष से, १२०० वर्ष से २००० वर्ष से कम से कम हमारी हमारे यूनान के सिकंदर के जमाने से हिंदुस्तान, इंडस से उसकी पहचान बनी और हम हिन्दू के नाम से पहचाने जा रहे है पिछले २००० वर्ष से। २३००-२४०० वर्ष पुराने शिलालेख मिले है उसमे हिन्दू शब्द का उल्लेख किया गया है यानि कि १५००-२००० वर्ष से हमारा देश, हमारा समाज जिस नाम से पहचाना जाता है वो हिन्दू नाम है और ये हिंदुस्तान, ये उन लोगों के रहने का स्थान है जो यहाँ के मूल निवासी है। इस नाम को हमने मान्यता दी ऐसा नहीं है, हमारी सरकार भी मान्यता देती है, हमारा समाज भी मान्यता देता है। आज अगर आप किसी अखबार वाले की दुकान पर चले जाए तो हिन्दू और हिन्दुस्तान नाम के बहुत सारे मैगज़ीन और अखबार आपको मिल जायेंगे। आपने भी देखा होगा हिन्दुस्तान निकलता है न अखबार। और एक साप्ताहिक हिन्दुस्तान निकलता है और एक अंग्रेजी में निकलता है "Hindustan Times" तो ये सब क्या है अगर हिन्दुस्तान संघ वालो ने शुरू किया होता तो १०० साल पहले से कैसे निकलना शुरू हो गया होता। एक मद्रास से अखबार निकलता है उसका नाम ही हिन्दू है, भई हिन्दू के नाम से। बल्कि सरकार के भी बहुत सारे महकमे चलते है वो हिन्दू के नाम से चलते है जैसे , हां बताओ? हिन्दू इंटर कॉलेज। हिन्दू इंटर कॉलेज सरकार का नहीं है ये तो समाज ने बनाया है। एक अच्छा नाम है, तुम्हारे ध्यान में आया। हिन्दू विश्वविद्यालय भी है, कहाँ है? काशी में। ऐसे हिन्दू इंटर कॉलेज, हिन्दू विश्वविद्यालय देश के अनेक कोनों में होंगे, जिन्हे सरकार भी मानती है। मेरे हाथ में घड़ी बंधी है HMT की, तुम में से कई लोगों के पास HMT की घड़ी होगी। ये किसकी फैक्ट्री है संघ वालों की, सरकार की फैक्ट्री है Hindustan Machine Tools, अगर हिंदुस्तान को सरकार मान्यता नहीं देती तो Hindustan Machine Tools क्यों नाम रखा जाता। एक हवाईजहाज बनाने का कारखाना है उसका नाम क्या है “Hindustan Aeronautics Limited (HAL)” अगर हिंदुस्तान इस देश का नाम नहीं था तो सरकार ने हवाईजहाज बनाने वाले कारखाने का नाम Hindustan Aeronautics क्यों रखा ! Hindustan Zinc Limited, Hindustan copper Limited, Hindustan Lever ऐसे बहुत सारे धंधे, फ़ैक्टरिया, संस्थान हिंदुस्तान के नाम से बनते है इसलिए ये इस देश का मान्यता प्राप्त नाम है, ये कोई संघ वालों की देन नहीं है, ये हमारा पहचान बताने वाला नाम है और इसलिए इस देश की पहचान जिस शब्द से होती है वो हिंदुस्तान, भारत, ये जो हिंदुस्तान है इसको कहते समय फिर एक प्रश्न लोगों के मन में आता है कि आखिर जब ये हिंदुस्तान है तो इसका अर्थ तो ये हुआ कि इस देश के अंदर तो हिन्दू रहते है। लेकिन जब हम पड़ोस में घर से बाहर निकलते है तो कोई बुर्के वाली, दाढ़ी वाले, टोपी वाले मिलते है कि नहीं मिलते। कौन है वो भी हिन्दू है! और वो एक बढ़िया सी बिल्डिंग बनी रहती है उसके ऊपर एक डंडा बना रहता है क्रॉस बना रहता है, क्या बोलते है उसको? चर्च बोलते है उसको। उसमे जो पूजा करने जाते है वो क्या कहलाते है ? पादरी। पादरी तो पूजा करता है। ईसाई या क्रिस्चियन। ये भी हिन्दू की श्रेणी में आ जायेंगे? फिर क्या है वो? वो इस देश के अंदर रहते है कि नहीं रहते है? तो फिर ये देश हिंदुस्तान है ये सही है या गलत है? तो फिर क्या कहना चाहिए इसको हिन्दू-मुस्लिम-ईसाई-इस्तान! थोड़ा सा नाम बढ़ा दें, चार पांच लोगो का नाम जोड़ने से क्या बिगड़ता है। हम लोग संघ के स्वमसेवक है, हम लोग इसको ठीक मानते है या नहीं मानते है ये बताओ? हम सारी दुनिया की वकालत थोड़े न कर रहे है, हम अपनी बात पूछ रहे है कि आप इस बात से सहमत है कि हिन्दुस्तान हिन्दुओं का देश है, ये सही है या गलत है? सही है। तो भैया मुसलमान और ये ईसाई और बाकी सब यहाँ इस देश में रहते है, ये सही है या गलत है? जब सब यहाँ रहते है तो इसका नाम हिन्दुस्तान क्यों है? जैसे मैंने पूछा देश का नाम वैसे ही एक शब्द है देश, ये देश क्या भई ? जिसका इतिहास हो और जिसकी संस्कृति हो, पुरानी हो। कैसे? खूब पुराना सा मकान, खंडहर सा हो उसमे जो लोग रहते हो। कैसे होगा पहचान तो बताओ कुछ। ठीक बता रहे हो तुम, गलत नहीं बता रहे हो लेकिन एक शब्द का जल्दी से चूँकि समय अब बैठक का समाप्त होने जा रहा होगा, भूख भी लग रही होगी। तो देश एक भौगोलिक इकाई है। जब हम कहते है कि भारत एक देश है तो देश का अर्थ क्या होता है ? कि ये समुद्र से तीन ओर से घिरा हुआ, ऊपर से हिमालय से घिरा हुआ, नदी, पर्वत, मैदान, पठार, जंगल ये सब जो कुछ भी है, आबादी, ये सब क्या है? ये देश की परिभाषा में आता है। ये क्या है? Geographical conception है, भौगोलिक इकाई है देश जो है। जैसे कोई कहे कि ये मेरा मकान है इसके अंदर १०-२० कमरे हो सकते है इसमें शौचालय होगा, बाथरूम होगा, बैडरूम होगा, जो जो भी आज के ज़माने में जरुरी होते होंगे उससे लेकर एक गरीब के झोपड़े तक, ये सब क्या है? ये मकान हैं। एक किसी बड़े आदमी की हवेली हो सकती है, किसी राजा का महल हो सकता है और गरीब की झोपड़ी हो सकती है, लेकिन वो क्या कहलायेगा? मकान है, ये क्या है उसका निवास है, यही conception उसकी लम्बाई हो सकती है, उसकी चौड़ाई हो सकती है, इसकी ऊंचाई हो सकती है, इसमें कमरों का विभाजन हो सकता है लेकिन ये मकान कहलायेगा। लेकिन जब हम इसको कहते है कि ये एक घर है तो इसके अंदर एक परिवार भी रहना चाहिए। बिना उसके उसकी कोई कीमत नहीं है दीवारों की। जब उसके अंदर हम परिवार की बात करते है तो उसके लिए पहली शर्त क्या हो जाती है कि मकान के अंदर कुछ न कुछ लोग रहते है वो २ होंगे, १० होंगे, ५० होंगे, १०० होंगे, कैसा भी परिवार हो सकता है लेकिन जब दस, पांच, पंद्रह, बीस, पच्चीस, दो, चार लोग रहते होंगे और इस स्थान पर रहने का उनको अधिकार प्राप्त होगा, वो किराये के कारण प्राप्त हो, यारी दोस्ती के कारण मिल गया हो या उन्होंने अपना मकान बनाया हो जैसा भी हो, उनके पूर्वज उनके लिए छोड़ गए हो लेकिन ये परिवार कब कहलायेगा, जब उस मकान के अंदर कुछ लोग रह रहे है, लेकिन ये मकान किसका कहलायेगा जिसने जमीन खरीदी होगी, जिसके नाम उसकी रजिस्ट्री होगी, जिसके नाम मकान बनवाया होगा, जिसने उस पर पैसा खर्च किया होगा, नक्शा पास करवाने में खून पसीना बहाकर, उसने नहीं उसने नहीं किया होगा तो उसके बाप-दादों ने किया होगा। मकान किसका हो सकता है? मकान और होटल और धर्मशाला में क्या अंतर होता है? होटल कोई बनवाता है और कोई रह सकता है पैसे देकर, धर्मशाला में शायद धर्म के नाम पर मुफ्त रह सकता है लेकिन किसी परिवार के अंदर कैसे रहेगा, जब उसका अपना है, उसने बनवाया है, उसके बाप-दादों का बनवाया है, उसने पैसा खर्च करके बनवाया है, कैसे भी हो जब तक उसका उस पर अधिकार नहीं है तब तक वो रह नहीं सकता स्थायी तौर पर उस पर, वो होटल ही कहलायेगा। अब अगर एक मकान है जिस मकान के अंदर मान लो दस लोग रहते है ये दस रहने लगें तो ये परिवार कहलायेगा ठीक है कि नहीं? क्या होगा फिर? दस लोग रहने लगें तो होटल कहलायेगा, पांच लोग रहे, छोटा परिवार-सुखी परिवार तो वो परिवार कहलायेगा है न? अरे इसके अंदर आपस में कोई सम्बन्ध है, रक्त सम्बन्ध है कि नहीं। आपस में कोई न कोई सम्बन्ध होता है, ये इसके पिता हैं, ये इनके पुत्र है, ये इसकी माता हैं, ये इसकी पत्नी है, ये उसका बेटा है, ये उसका नाती है अगर ये सम्बन्ध नहीं है तो परिवार में कोई रह सकता है क्या ! उस परिवार में ये घर किसका है ये सब लोगों का है, सबका मतलब उनमे आपस में कोई न कोई सम्बन्ध हो तभी तो अधिकारपूर्वक रह रहा है वो चाहे इसलिए रह रहा है, चाहे उसका बेटा होगा , चाहे भाई होगा, चाहे उसकी पत्नी होगी, चाहे उसकी अम्मा होगी, चाहे उसकी बहन होगी, चाहे उसका रिश्तेदार होगा आखिर कोई न कोई उनका आपसी सम्बन्ध होना चाहिए। खाली दस लोग आकर एक मकान में रहने लगे तो वो परिवार नहीं बनाते। परिवार बनाने के लिए क्या चाहिए? पहली शर्त कि उनमे आपसी सम्बन्ध हों और कैसे सम्बन्ध हों ? जो रक्त सम्बन्ध कहला सकें अगर ये सम्बन्ध नहीं है तो वो परिवार कैसे हो जायेगा। सहमत हो आप लोग इस बात से ? अब फिर क्या होना चाहिए? मान लो एक मकान के अंदर दस लोग रहने लगे लेकिन उनका आपसी, जब कोई चर्चा होती है घर में, जब चार लोग बैठते है तो पिताजी बैठ कर कर बताने लगते है देखो हमारे बाबा ने एक बहुत बढ़िया घोड़ी खरीदी थी और ऐसा हुआ कि एक पर बैठकर मेला देखने गए तो वो फलानि चीज खरीद कर लाये थे तो हम लोग बड़े गौर से सुनते है कि बाबा गए, क्यों गए भई, वो बाबा हमारे भी तो कुछ थे, हमारे परबाबा थे भई। अगर हमारे उनको सुनने के बाद हमको लगता है कि पता नहीं कहाँ के किस्से लेकर बैठ गए , किसके बाबा, क्या बाबा, मुझे उस बाबा से लेना देना तो क्या आप इसे सम्बन्ध मानोगे? अगर इस देश के अंदर कोई रहने वाला अगर राम कथा कहता है और कहता है कि हम तो राम के वंशज है और दूसरा कहता है कि अजी राम से हमे क्या लेना देना तो इस परिवार में शामिल हो जायेगा? नहीं होगा । अब आप एक समझते जाओ, परिवार बनाने के लिए पहली शर्त तो ये है कि उसमे आदमी होने चाहिए खाली मकान की बंद दीवारें चाहिए उसमे कोई न कोई आदमी रहने भी चाहिए और फिर जो लोग उनमे आपसी रक्त सम्बन्ध भी चाहिए और उन सब का आपसी कुछ न कुछ इतिहास होना चाहिए उस इतिहास से सब लोग अपने को जोड़ते हों, फिर उनके मानबिंदु, उनके रीति-रिवाज एक से होने चाहिए। घर में दीवाली का पूजन होगा, सारे लोग इकट्ठे बैठेंगे। घर में कोई उत्सव आएगा, सब लोग इकट्ठे बैठेंगे। बैठते है कि नहीं बैठते है? क्यों, क्योकि हम सब एक परिवार बनाते है। घर के अंदर कोई बीमार हो जायेगा, अरे होन दो मर रही है अम्मा तो मरने दो हम तो अपनी फिल्म देखने जा रहे है, होता है क्या घर के अंदर! घर में अगर कोई मरणासन्न पड़ा है, बीमार और हम क्या कर रहे है, हम अपने बढ़िया टेलीविज़न चला के बढ़िया रसगुल्ले ले आये बाजार से, कमरा बंद करके खा लेंगे, परिवार हो जायेगा क्या ये ? नहीं हो सकता। क्यों, क्योकि सुख दुःख की अनुभूति भी साथ साथ होती है। अगर हमारे सुख में सुखी नहीं हुआ, हमारे दुःख में दुखी नहीं हुआ तो वो परिवार कैसे हो सकता है। उनका एक इतिहास होना चाहिए, उनका एक भूगोल होना चाहिए, उनका एक आपसी रक्त सम्बन्ध होना चाहिए और आपसी सुख दुःख के भी सम्बन्ध होने चाहिए। सुख दुःख की समान अनुभूति। और क्या होना चाहिए? ऐसे ही विजय-पराजय में भी उनको साथ रहना चाहिए। घर के अंदर एक समान व्यवहार होता है। मान लो मेरे पिताजी सड़क पर से जा रहे थे या मेरा भाई सड़क पर से जा रहा था, मेरे पडोसी ने उसको गाली दी, झगड़ा किया, मारा-पीटा या कुछ भी किया मैं लड़ूँ या न लड़ूँ, इसमें मेरा क्या बिगड़ता है, उसमे मेरे से तो कुछ भी नहीं कहा मुझसे तो बड़े प्यार से कहता है लल्लू आओ बैठो। पिताजी को ही तो उसने जूता मारा है डंडा मारा है, मेरा क्या अपमान हुआ इसमें। तो चलेगा ऐसा परिवार के अंदर ? एक भाई पिट कर आ गया और दूसरा भाई उसके घर दावत खाने चला जाये। चल सकता है क्या ? नहीं चलेगा। क्या होता है? ये शत्रु-मित्र का भाव भी समान होना चाहिए, ये शत्रु-मित्र भी समान होते है एक परिवार के अंदर। सुख-दुःख की अनुभूति समान होगी, शत्रु-मित्र समान होंगे, लाभ-हानि की वृत्ति भी समान होगी। दो भाइयों की भले ही अलग अलग दुकान हो या अलग अलग कमरे के अंदर रहते हो, अगर उसके घर के अंदर बराबर में आग लग जाएगी तो मुझे कष्ट होगा कि नहीं होगा। उसको बचने की कोशिश करूँगा कि नहीं करूँगा। क्यों, क्योकि वो मेरा भाई है, उससे मेरा रक्त सम्बन्ध है, मेरा परिवार है अगर ये वृत्ति नहीं है तो उसके साथ मेरा सुख-दुःख के या भाईचारे के कोई सम्बन्ध नहीं है फिर तो मेरा और एक होटल का, होटल में एक पडोसी गिर गया, बीमार हो गया, रात भर रोये-चिल्लाये मेरे को क्या मैंने तो पचास रुपये इस कमरे के रात भर के दिए मैं तो आराम से सोऊंगा। अंतर कहाँ है कि शत्रु-मित्र, सुख-दुःख, इतिहास-भूगोल, आपसी सम्बन्ध ये सब जब मिलते है तो परिवार बनता है। परिवार केवल ये कहने से कि कोई भी दस लोग एक कमरे में बंद कर दिए जाये या एक मकान में रहने लगे तो परिवार नहीं बनता। उनकी कुछ निजी परम्पराएं होती है, निजी तीज त्यौहार होते है, सबके मान बिंदु भी एक से होते है। घर के अंदर, हमारे ड्राइंग रूम के अंदर बाबाजी की फोटो लगी है और कोई पडोसी आये और बाबाजी की फोटो को डंडा मार जाये। क्या है ! पिताजी ने लगाई थी मेरा इनसे क्या लेना देना, मैंने तो देखे भी नहीं बाबाजी कैसे थे, चलेगा भई ? क्यों, क्योकि मान सम्मान सबका एक ही है। ये मान सम्मान की वृत्ति भी एक जैसी होती है। बाकी बातें तो छोटी है कि कौन किसकी पूजा करता है। हो सकता है हमारी माताजी वृहस्पति, शनिचर या शुक्रवार का संतोषी माता का व्रत करती हो और पिताजी आर्यसमाजी हो आर्य समाज में जाकर यज्ञ-हवन करते हों और हनुमान जी का मंगल का व्रत करता हूँ मैं और मेरा छोटा भाई ऐसा नास्तिक हो कि वो किसी की पूजा, व्रत-उपवास नहीं करता हो, एक परिवार में रह सकते है। इसमें कोई झंझट नहीं है हमारे समाज के अंदर। लेकिन पिताजी जब यज्ञ करने लगे तो बाली लेकर उनके हवनकुंड में उलट आये कि मैं तो हनुमानजी की पूजा करता हूँ, मुझे यज्ञ-हवन से कोई बात नहीं लेनी-देनी। चलेगा भई? निकाल के बाहर खड़ा कर देंगे कान पकड़ेंगे और बाहर को, जा बेटा जहाँ तुझे हनुमान जी मिलें वहां जा। झगड़ा हनुमान जी और यज्ञ का नहीं है, माने जो बिना किसी लालच के, बिना किसी जोर-जबरदस्ती के अपने निजी प्रेरणा से राष्ट्र की सेवा करने के लिए जो तैयार है वो स्वयंसेवक है। जो स्वम् की प्रेरणा से सेवा करता है वो स्वयंसेवक । राष्ट्र भी उसके पहले लग लगा तो राष्ट्र की जो सेवा करता है वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक । हमको आज इस शिविर में लाये तो काहे के लिए लाये, हमारे मुख्य शिक्षक जी ने कहा था कि जाना नहीं तो डंडा देख रहे हो, दर के मारे हमे लगा कि चलो शिविर में चले चलें। अच्छा लालच में लाये कि वहां बढ़िया खीर मिलेगी, हलवा मिलेगा, बड़ी बढ़िया व्यवस्था होगी, इस लालच में आये थे क्या संघ के स्वयंसेवक लोग। नहीं भई, हम सब लोग न लालच के कारण, न डर के कारण, न जोर-जबरदस्ती के कारण, किसी कारण से संघ के कार्यक्रम में नहीं आते। संघ के स्वयंसेवक बने है हम। संघ के स्वमसेवक कैसे बने? हम स्वम् की प्रेरणा से बने। इसलिए हम क्या है member, सदस्य। संघ में मेंबर नहीं होता, स्वयंसेवक होता है जो स्वयं की इच्छा से स्वयं की प्रेरणा से, बिना किसी जोर-जबरदस्ती, लालच के देश का काम करता है, राष्ट्र का काम, सेवा करता है स्वयंसेवक और ऐसे लोगों का संगठन क्या कहलाता है स्वयंसेवक संघ, ये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमारी पहचान, हमारा राष्ट्र, हिन्दू राष्ट्र। इस राष्ट्र की जो अपनी इच्छा से सेवा करते है वो कौन है? स्वयंसेवक। और उन लोगो का संगठन कौन है हम सब, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। हमारा हिन्दू राष्ट्र है। इसके अंदर जो भी बाहर से आये है वो आक्रमणकारी होंगे, किरायेदार होंगे कैसे भी होंगे। अगर हम ये कहते है कि ये हिन्दू राष्ट्र है तो यहाँ कैसे रहना है ये रास्ता खुद तय करें वो। और हम सब लोग बिना जोर-जबरदस्ती, लालच के देश का, राष्ट्र का काम करें, सेवा करें इस संकल्प को लेकर हम इस शिविर के हैं और यहाँ से कुछ सीख कर जायेंगे। वेशभूषा कैसी है, बोलचाल में कुछ खास अंतर नहीं है, लेकिन एक दूसरे की सभ्यता-शालीनता, हो सकता है हमारा इक़बाल तुतला के बोलता हो, उतना बढ़िया शुद्ध नहीं बोल पाता हो। जब हम बोलते हैं अपने दोस्तों के बीच में तो अंग्रेजी के चार शब्द भी बोल लेते है माताजी नहीं बोल पाती होंगी तो इससे क्या कोई अंतर पड़ जाता है ! कोई अंतर नहीं पड़ता। वेशभूषा से या खाने पीने की इच्छाओं से जैसे मुझे मिठाई पसंद है, मेरे भाई को चाट पकौड़ी पसंद है, अम्मा जी को दाल-भात पसंद है, पिताजी को कढ़ी चावल पसंद होंगे। किसी को भी कुछ भी पसंद हो सकता है। इससे कोई परिवार में झगड़ा होता है क्या। नहीं लेकिन ये नहीं हो सकता कि मुझे चूँकि लौकी की सब्जी पसंद है या आलू की सब्जी पसंद नहीं है तो घर के अंदर लौकी की सब्जी ही बनेगी, आलू की सब्जी नहीं बनेगी। चलेगा क्या ? नहीं चलेगा। कभी उसकी पसंद हमे निभानी पड़ेगी, हमारी पसंद वो निभाएगा। ऐसे ही तो परिवार चलता है। तो ये सब जो सुख- दुःख की अनुभूति सबके साथ सब चलेगा तब परिवार बनता है और एक बार इस बात को फिर से दें कि परिवार के लिए क्या- क्या आवश्यक है? एक स्थान चाहिए जहाँ निश्चित स्थान पर वो रहते हों वो एक साथ रहते है और जब भी मिलते है तो आपस में उनका, फिर उनका पारिवारिक सम्बन्ध है, उनके आपसी सम्बन्ध है, उनका इतिहास है, उनका भूगोल है, उनका सुख-दुःख है, उनका हानि-लाभ है, उनका मित्र-शत्रु भाव है, उनका मान-अपमान का भाव है, उनकी विजय-पराजय का भाव सब एक साथ जुड़ा हुआ है, उनके इष्टदेव माने मानबिंदु एक है, उनके संस्कार एक से है, उनके तीज-त्यौहार एक से है तब जाकर वो क्या बनता है, परिवार बनता है। ऐसे ही कोई खाली देश है, ये भूमि का टुकड़ा है इसके उत्तर में हिमालय है और दक्षिण में हमने समुद्र बना दिया तो ये क्या बन जायेगा, देश। लेकिन इस देश को, इस पर नदी हो सकती है, पर्वत हो सकते है, मैदान हो सकते है, खेत हो सकते है, जंगल हो हैं, लेकिन ये राष्ट्र नहीं बनता है। राष्ट्र कब बनता है? जब इस पर एक आबादी रहती है और वो आबादी कैसी है जिसके आपस में कोई न कोई सम्बन्ध हैं। घर के अंदर रहते है तो कहते हैं फलाने सिंह की हवेली है ये वो कब हुए कब हुए थे, हुए थे १५० साल पहले। कितनी पीढ़ी बीत गईं मालूम। लेकिन एक सजरा चला आ रहा है कि फैलाने के तीन लड़के थे उसमे से दो की शादी हो गई, एक ऐसे ही मर गया फिर उसमे से दो के फिर दो-दो लड़के हुए फिर उनके तीन लड़की हुईं फिर उनका वंश खत्म हो गया फिर ये चला। हवेली कैसी है १५० साल पुरानी है १० पीढ़ी बीत गई। लेकिन परिवार का एक इतिहास है, एक परम्परा है। ये सब उस एक पुरुष से अपने को जोड़ते है। हम भी यही कहते है कि हमारा सारा समाज, वो किसी भी जाति का हो, किसी भी वर्ण का हो, सब किससे है, एक ही ईश्वर की संतान हैं। हैं कि नहीं ! जो लोग सो रहे हैं वो दस मिनट और जागे फिर भोजन सोएं आराम से। किसी की रीढ़ टेढ़ी हुई तो नींद आनी स्वाभाविक है इसलिए रीढ़ सीधी रखोगे तो नींद नहीं आएगी। न समझ आये बात नहीं पर जितना रहा है, उतना समझ लो। तो उसके ऐसा रहना चाहिए जिनके आपस में सम्बन्ध हों। जब हम ये कहते है कि ये हिन्दुस्तान है तो ये क्या है, भारत हिन्दू राष्ट्र है। तब हिन्दू राष्ट्र कहने से हमको ये मालूम पड़ता है कि एक समाज ऐसा रहता है कि आपसी है जिसके आपसी रक्तसम्बन्ध है। वो कहता है कि हम सब एक परमपिता की संतान हैं। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है
“चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः”
चारो वर्णो को किसने बनाया है, मैंने बनाया है एक व्यक्ति के द्वारा निर्मित है सारा समाज। जाति, बिरादरी, व्यवसाय ये सब बदल गई होगी लेकिन ये चातुर्वर्ण तो, फिर क्या होगा उनका इतिहास एक सा है। जब हम कहते हैं कि मैं भगवान् राम का वंशज हूँ तो मेरा पडोसी ये नहीं कह सकता कि मैं तो नहीं हूँ राम-वाम का वंशज। हमे मिला था। होंगे भई देश के अंदर कुछ न कुछ तो मिल जायेंगे ऐसे बन्दे भी। अब आपको ये नहीं मालूम कि मुलायम सिंह बिरादरी के कुछ लोगों ने उनसे कहा कि तुम राम जन्मभूमि का इतना विरोध कर रहे हो, उनके निजी मित्र थे, कल को जब कृष्ण जन्मभूमि का आंदोलन चलेगा और तुम्हारी बिरादरी की पंचायत तय करेगी क्योकि भगवान् कृष्ण भी यदुवंशी थे, यादव थे और कल को तुम्हारी बिरादरी पंचायत करके कृष्ण जन्मभूमि का आंदोलन चलाएगी तो तुम कहाँ रहोगे तो मुलायम सिंह जी ने उस निजी बातचीत में यही कहा कि एक बार रामजन्मभूमि तो ले लो फिर तो सब हमे वाली हैं। तो वो विरोध राम जन्मभूमि का नहीं कर रहा वो तो मुसलमान के वोट के लालच में विचारे ने सब पाप किये। और
"जाको प्रभु दारुण दुःख देहीं, तेहि कर मति पहले हर लेहिं।"
जिसको भगवान् ने दुःख देने होते है उसकी बुद्धि हरण कर लेते हैं। मुलायम सिंह बेचारे उसी category के है। तो ये जो समाज है, इस देश के अंदर एक समाज रहता है जिस समाज का अपना एक इतिहास है, अपनी एक संस्कृति है, अपना एक भूगोल है, वो सारे देश को अपना मानता है। जब चीन का आक्रमण हुआ तो दक्षिण भारत के लोगों ने ये नहीं कहा कि जी हमारे यहाँ क्या है, हमारे यहाँ से तो अभी दो हज़ार-तीन हज़ार किलोमीटर की दूरी पर हमला हो रहा है, हम क्यों रक्षा के लिए पैसे दें या हमारा सिपाही वहां जाकर क्यों लड़ेगा। सारा देश लड़ने के लिए गया। पाकिस्तान ने हमला किया सारे देश के लोगों ने उसके लिए व्यवस्था की। क्यों, क्योकि मैं तो साहब इस कमरे में रहता हूँ, दरवाजा तो उधर है, चोर घुस रहा है उधर से मैं क्यों रोकूं। अरे घर मेरा है चोर जिधर से भी घुसेगा उसकी हिफाजत मैं नहीं करूँगा तो कौन करेगा। इसलिए अगर ये देश हमारा है तो इस देश के अंदर रहने वाला एक समाज है जिसका अपना एक रक्त सम्बन्ध है, उसका एक अपना इतिहास है, उसकी सुख-दुःख की सामनानुभूति है, जय-पराजय की, शत्रु-मित्र की, जब हम कहते हैं कि पाकिस्तान हमारा शत्रु है तो वो जितना शत्रु उत्तर प्रदेश के अंदर लगता है उतना ही शत्रु मध्यप्रदेश के अंदर लगता है, उतना ही वो केरल, कर्नाटक, तमिलनाडू और पंजाब में लगता है ।कोई ये नहीं कहता इस देश में रहने वाला कि पाकिस्तान हमारा मित्र देश है। कहता है क्या? नहीं कहता। क्यों? क्योकि हम एक परिवार की तरह हैं, सारा हिंदुस्तान क्या है, एक राष्ट्र है। तो ये भारत के अंदर रहने वाला समाज ये कहता है कि पाकिस्तान मेरा शत्रु है। वो सारे देश के साथ एक साथ जुड़ता है। लेकिन उसमे से भी कुछ लोग निकल आते हैं, जब पाकिस्तान मैच जीतता है तो वो दिवाली मनाते हैं। कौन हैं वो? वो इस देश के राष्ट्रीय नहीं हो सकते। वो इस परिवार के सदस्य नहीं बनना चाहते। अगर वो इस परिवार के सदस्य बनना चाहते तो पिताजी के साथ मारपीट करने वाला या पिताजी को जिसने अपमानित किया उसे मैं कैसे बर्दाश्त कर लूँ। वो भी लड़ते हमारे साथ कथे से कन्धा मिलाके। जो नहीं करते वो इस परिवार के सदस्य नहीं बन सकते। विजय-पराजय का, लाभ-हानि का ये जो सारे गुण है, ये गुण जिस समाज में पाए जाते है वो समाज कौन सा है? हिन्दू समाज है। क्योकि हिन्दू समाज इस देश के अंदर जो परंपरा, संस्कार, जब हम कहते है कि ये देश किसका है राम का है तो हिन्दू विरोध नहीं करता, ये देश कृष्ण का है और जब हम कहते है इस देश का नाम हिन्दुस्तान तो इसका अर्थ ही ये है कि ये हिन्दुओं के लिए निर्माण किया हुआ स्थान था अन्यथा कोई दूसरा, भवन तो जो बनाता है उसके नाम पर होता है न। तो ये हिन्दुओं का देश था, इस देश के अंदर एक ऐसा समाज रहता है जिसका भूगोल, जिसका इतिहास, जिसकी परम्परा, जिसकी संस्कृति, जिसका सुख-दुःख का भाव, जिसका मित्र-शत्रु का भाव वो सब एक जैसा है। और वो समाज कौन सा है, हिन्दू समाज है। मुसलमान आज अपने को इस परिवार में नहीं मानता है, हम कहते हैं इसलिए नहीं, वो मानता ही नहीं है। हम जब कहते है कि भैया ये भगवान राम की जन्मभूमि है, राम इस देश के आदर्श पुरुष थे, ये तो हमारे बाबा थे और बाबर चोर था तो जो चोर के पक्ष मे खडा हो रहा है वो घर का वफ़दार माना जायेगा या नही भले ही वो सगा भाई हो उसको भी कहेगे कि अच्छा तू चोर के साथ, डकैत के साथ शामिल था, जा भैया तू भी जा। उसको रहने का घर के अन्दर कोई अधिकार नही है। जो ये कहता हो कि मै इस घर के अन्दर बूढ़ी दादी है उससे उठा बैठा भले ही नही जाता हो लेकिन घर के अन्दर कोई काम होता है तो सब काम दादी से पूछकर होता है क्योकि वो घर की सबसे बडी बुजुर्ग है चाहे उसका कोई कुछ करे न करे पर दादी को कोई गाली दे जाये, बर्दाश्त कर लोगे ! लेकिन इस देश के अन्दर ऎसे भी कुछ लायक सपूत है जो कहते है भारत माता डायन है, सुना है? और दुर्भाग्य क्या कि मन्त्री थे और इस बार भी एम एल ए जीत गये। कौन थे? आजम खां। उनको आप इस परिवार मे मान लोगे ! जो माँ को आकर गाली दे तो वो क्या नेता कहलायेगा? नही हो सकता। अगर वो नेता बनकर इस देश के अंदर रहना चाहते है तो उन्हें क्या करना पड़ेगा, माँ का सम्मान करना पड़ेगा। वो हमारी माँ को गाली देकर नहीं रह सकते इस देश में। फिर ऐसे ही जब इस देश की विजय होती है तो सारे देश के अंदर हमने बांग्लादेश जीता, सारे देश को प्रसन्नता हुई, हम चीन की लड़ाई में हार गए जमीन अपनी, सारे देश को दुःख होता है। आज कश्मीर के अंदर हमारे लोग मारे जाते है तो हमे दुःख होता है। लेकिन कुछ लोग कहते है, कश्मीर के अंदर पकिस्तान का झंडा फहराते है। वो लोग कौन है, इस परिवार का सदस्य बनने लायक है वो ? नहीं हैं। इसलिए जब हम कहते है भारत हिन्दू राष्ट्र है माने इस देश का जो धर्म है, इस देश की जो संस्कृति है, इस देश का इतिहास है, इस देश का महापुरुष है, इस देश के जो परम्परा से चले आने वाले लोग हैं उनका जो सम्मान नहीं करता हो वो इस देश की मुख्यधारा में शामिल नहीं है, वो इस देश का सदस्य नहीं कहला सकता। इसलिए इस देश का राष्ट्रीय कौन है, जो हिन्दू है और हम हिन्दुओं का संगठन करते है इसलिए हमने अपने संगठन का क्या नाम रखा ? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। क्योकि हम राष्ट्र की बात करते है। हिन्दू और राष्ट्र इस देश के अंदर समानार्थी हैं। हिन्दू माने राष्ट्रीय। राष्ट्र की पहचान हिन्दू से है। इसलिए जब कोई कहता है कि भारत हिन्दू राष्ट्र है तो ये अटल सत्य है डॉ हेडगेवार जी ने कहा कि मैं कहता हूँ भारत हिन्दू राष्ट्र है। ये वास्तविकता है कि ये देश इतिहास, परम्पराओं, भूगोल, संस्कृति, साहित्य सबके द्वारा निर्मित है, अब इस देश के अंदर जो बाकी लोग है, वो कौन है? उनके बारे में भी विचार कर लो। इस देश के अंदर कुछ लोग रहते है जिनकी पहचान वो किसी दूसरे देश के साथ करते है। कई बार दूसरे घर की भी लड़की आती है हमारे घर में। आती है कि नहीं आती है, उसे रखते हो कि नहीं। बड़ी ख़ुशी से बैंड बाजे लेकर चले जाते हो, बुला लाते हो उसे। लेकिन जब वो वहां से छोड़कर आती है तो क्या करती है। उस बहु को कोई अच्छा नहीं मानता जो हमेशा अपने पीहर की बात करती है। उसके आते ही उसका गोत्र, उसकी जाति सब बदल जाती है। वो जिस परिवार में आती है उस परिवार में उसका गोत्र गिन लिया जाता है। उस परिवार की सदस्य हो जाती है। वो भी काम करेगी, जो कुछ भी अच्छा-बुरा होगा उसकी जिम्मेदारी किस पर होगी, उस परिवार की होगी जिस परिवार में वो आती है। इस देश के अंदर जो मुसलमान है, जो ईसाई हैं वो क्या इस घर के अंदर बहु की तरह आया है? न। बैंड बाजे से बुला के लाये थे, नहीं आये थे तो कैसे आया फिर वो ! तो इस मकान का मालिक कौन होगा ? जिसने इस मकान को बनवाया होगा, जमीन खरीदी होगी, मकान बनवाया होगा। लेकिन कई बार लालच में हमने दो कमरे किराये पर दे दिए या किसी रिश्तेदार को बेचारा गरीब था परेशानी में था उसे यहाँ छः महीने - साल भर रहना था हमने उसे कह दिया कि हमारे यहाँ चार कमरे है, एक फालतू है तुम आ जाओ रहने लगो, हो जाता है कि नहीं ऐसा ? लेकिन उसके किरायेदार होने से या रिश्तेदार करके रुकाने से ये मकान मेरा रहा कि नहीं रहा, मकान का मालिक कौन रहेगा? मैं ही रहूंगा। और मकान मालिक मैं हूँ इसका अर्थ ये है कि ये सब मेरे किरायेदार होंगे, मेरे रिश्तेदार होंगे, मेरी कृपा पर रह रहे होंगे, कैसे भी होंगे लेकिन वो इस घर के मालिक नहीं हो सकते। मालिक कौन होगा, मकान मालिक। कभी ऐसी भी स्थिति आ सकती है कि हम बाहर चले गए या घर के अंदर हम तो अकेले ही है, मोहल्ले के अंदर चार गुंडे बदमाशों ने हमारे दरवाजे के बाहर एक बैठक सी थी उस पर कब्ज़ा कर लिया और हमने झगड़ा करना शुरू किया तो गुंडे ले आये, पुलिस में रिपोर्ट की तो पुलिस ने कहा, यहाँ कुछ नहीं होगा, अदालत में चले जाओ, अदालत में मुकदमा अटक गया और उनका उस कमरे पे कब्ज़ा हो गया। इस कब्ज़ा हो जाने से क्या मकान उनका हो जायेगा, किसका रहेगा मकान? मकान उसी का है जिसने मकान को बनवाया या जिसके पुरखों ने मकान बनवाया ये उसी का मकान रहेगा चाहे उसमे कोई किरायेदार आ जाये, चाहे गुंडा घुस जाये चाहे उसमे कोई रिश्तेदार रहने लगे। इस देश के अंदर हिन्दुओ के अलावा जो रह रहे है वो कैसे है? मुसलमान इस देश के अंदर गुंडे की तरह आया, अंग्रेज इस देश में व्यापारी के तौर पर आया और इस देश के अंदर पारसी और यहूदी शरणार्थी के तौर पर आये। वो इस देश के अंदर रह तो रहे है लेकिन वो इस घर के मालिक नहीं हो सकते। ठीक बात है आप इस बात से सहमत हैं? और यहाँ रहेंगे भी कब तक? ये मेरे रिश्तेदार थे या मित्र भी थे, आ गए, इनसे मैंने कहा कि अच्छा तुम्हे इम्तिहान देना है तो मेरे घर में रह लो। लेकिन इन्होने क्या किया, पहले दिन आते ही इन्होने हमारे पिताजी को गाली देना शुरू कर दी, ओ, क्या बुड्ढे कहाँ चला आ रहा है, हमारे घर के अंदर जो व्यवस्थाएं थी वो सब भंग करना शुरू कर दी, उन्होंने आँगन में खड़े होके कूड़ा डालना शुरू कर दिया, घर के अंदर गाली-गलौज करनी शुरू कर दी, उल्टे-सीधे लोगों को बुलाकर अपने गाने-बजाने लगे, घर का माहौल अस्त-व्यस्त हो गया। होंगे आप हमारे रिश्तेदार, हमारे मित्र, तुम अपना सामान ले जाओ यहाँ से, लौटने का रिक्शे का किराया तुम हमसे लो और घर खाली करो। करोगे कि नहीं करोगे नहीं करोगे। और किरायेदार आ जाये तो उससे इतना भी नहीं कहोगे, हाथ जोड़कर कहोगे कि लाला महीना हो गया पूरा अब उठा सामान यहाँ से। क्यों, क्योकि मकान पर मेरा अधिकार है, मैं घर का मालिक हूँ जैसा मैं तय करूंगा वैसे इस घर के अंदर रहना पड़ेगा। अगर मैं कहूंगा इस घर के अंदर कीड़ा भी न आये, पर यहाँ पर बैठोगे, पानी यहाँ की बजाय यहाँ डालोगे, खाट यहाँ नहीं यहाँ बिछाओगे अपनी तो वहीँ रहोगे, हमारी शर्तों पर रहोगे क्योकि तुम हमारे घर में किरायेदार हो। अगर हमारी शर्तों पर नहीं रहोगे तो अपना सामान उठाओ और चल दो नहीं तो हम तुम्हारा सामान उठाकर दरवाजे के बाहर रख आयेंगे। और गुंडे से, गुंडे से तो इतनी पूछने की भी जरुरत नहीं, अगर तुम्हारे लट्ठ में जोर हो तो महीना इंतज़ार करने की भी जरूरत नहीं है। उसका सामान उठाओ दो डंडा मारो, सामान अपने पास रखो, छोड़ो मेज, कुर्सी, खाट लाया था, बाहर निकल। तू लाया क्या था यहाँ गुंडागर्दी करने आया था। कैसा व्यवहार करते हो। इस देश के अंदर जो गुंडे आये उनसे कैसा व्यवहार होना चाहिए , जो किरायेदार आये उनसे क्या व्यवहार होना चाहिए, जो शरणार्थी आये उनसे कैसा व्यवहार होना चाहिए। एक छोटे से परिवार में हम जैसा व्यवहार करते है, क्योकि राष्ट्र एक बड़ा परिवार है उसके लिए भी हमे वैसा ही व्यवहार करने की कोशिश करनी चाहिए। इसलिए कोई कहता है कि भारत क्या है, हिन्दू राष्ट्र है। तो लोग कहते हैं अगर भारत हिन्दू राष्ट्र है तो मुस्लमान का क्या होगा ? भई किरायेदार है तो किरायेदार बन कर रहे और अगर शरणार्थी है तो शरणार्थी बन कर रहे, हमने बहुतो को शरण को शरण दी है। अगर गुंडागर्दी के साथ घर में रहना चाहता है तो भैया, जो हमारे वश में होगा, हम कोई रियायत नहीं करेंगे निकाल के कर देंगे बाहर। भाईचारे में रह रहा है तो रह ले। भई देखो इस देश के अंदर पारसी आये, यहूदी आये उन्होंने कभी कुछ नहीं कहा। मुसलमानो के लिए अलग सीटों का अंग्रेजो ने निर्वाचित किया तो 1943 में अंग्रेज वायसराय ने पारसियों से ये बात कही कि हम लोग जाने वाले है लगता है हिन्दुस्तान हमको छोड़कर जाना पड़ जाएगा तो आप हमसे अपने लिए सीटें फिक्स करवा लो, सुविधाएँ तय करवा लो तो २००० पारसियों ने जो देश के प्रमुख-प्रमुख पारसी नेता थे उन्होंने दस्तखत करके वायसराय को दिए कि हम हिन्दू समाज के साथ मिलकर रहना चाहते है, जिस तरीके से वो हमको रहेंगे हम उसमे खुश हैं हम उनसे किसी विशेष अधिकार की मांग नहीं करेंगे। इसलिए कभी भी झगडे होते है तुमने कभी पारसियों से झगडे होते नहीं सुने होंगे। सुने है कभी? हिन्दू-मुस्लिम का झगड़ा हो जाता है, कभी-कभी ईसाईयों से झगड़ा हो जाता है। पारसी कोई सामान्य नहीं है उन्होंने बड़े बड़े इस देश के अंदर उद्योग खड़े किये हैं इस देश में। टाटा का नाम सुना है, जमशेद जी टाटा, पारसी थे। बहुत बड़े उद्योगपति हैं। और भी बहुत सारे लोग है। एक नाम सुना होगा आप लोगों ने जब हिन्दुस्तान ने बांग्लादेश की लड़ाई जीती थी, उस समय हमारा थल सेना अध्यक्ष कौन था? जनरल मानिक शाह, CFMJ मानिक शाह।
राष्ट्र की तत्कालीन समस्याएं
ऐसी श्रेष्ठ धरती लेकिन हिन्दू समाज के संगठनों के कारण जो हमारे संगठन की कमी थी ,आपसी फूट थी, आपसी स्वार्थ के कारण हम देशभक्ति को भूल गए थे उसके कारण हमारा देश कटते कटते कितना छोटा रह गया है इसकी हमने थोड़ी सी जानकारी प्राप्त की। लेकिन अभी भी इस देश के अंदर ये समस्याएं समाप्त नहीं हुईं। अभी भी देश के सामने अनेकों-अनेकों ऐसे प्रश्न खड़े हैं कि देश के अंदर उन समस्यायों के बारे में अगर आप लोगों से पूछा जाए तो शायद आप लोगों को भी मालूम न हो। आज अपने देश के अंदर ऐसी कौन कौन सी समस्याएं हैं जो देश को बांटने का प्रयास कर रहीं हैं, देश को तोड़ने का प्रयास कर रही हैं। कौन कौन इसके बारे में जानते हैं जरा हाथ खड़ा करें, बताएं ? खालिस्तान। क्या जानते हो तुम खालिस्तान की समस्या के बारे में ? सिक्खों की मांग है। क्या कहते हैं वो ? खालिस्तान देदो। और कोई समस्या ? सांप्रदायिकता। ये क्या चीज होती है भई ? कौन हैं यहाँ संप्रदाय ? मुसलमान। क्या कहते हैं मुसलमान? और ? कश्मीर समस्या। कश्मीर में क्या हो रहा है ? मुसलमान कश्मीर को अपने क्षेत्र में करना चाहते हैं। और? राम जन्मभूमि। और? आतंकवाद। क्या होता है भई ये ? क्या है ये आतंकवाद, कोई मनुष्य है पशु है क्या है ये ? और? बस। बड़ी थोड़ी सी समस्याएं हैं इस देश में। रह गया है कुछ अभी भी बताओ ? गरीबी। लोगों को ईसाई बनाने की अधिक कोशिश कर रहे हैं। अधिक कोशिश कर रहे है ये परेशानी है कम करें तो कोई समस्या नहीं है ! हां क्योंकि इससे धर्म परिवर्तन हो रहा है। मतलब वो अपनी तरफ से दाना तो डालें पर जाल न बिछाएं ! चलो ठीक है आपने कई सारी समस्याएं बताईं। कुछ विषय पर बताईं कुछ विषय से हटकर बताईं। मैंने प्रश्न पूछा था कि वो कौन कौन सी समस्याएं हैं जो आज भी देश को तोड़ रहीं है। कुछ ने अपने मन की बता दीं कुछ ने वास्तव में जो थीं वो बता दीं पर बताईं सबने ये अच्छी बात है। अब कुछ समस्याएं उनकी अपने को ठीक से जानकारी चाहिए। एक समस्या अगर हम भारत के मानचित्र देखते हैं। यहाँ तो लगा नहीं है लेकिन अगर भारत माता का मानचित्र लगा होता तो हम जानते हैं कि भारत माता का जैसे मस्तक होता है, मस्तक पर लगा हुआ मुकुट की तरह अपना कौन सा प्रान्त है ? कश्मीर। तो भारत माता, उसका मुकुट कश्मीर उसकी क्या समस्या है ये अपने को जानकारी होनी चाहिए। कश्मीर में केवल जिसको हम कश्मीर कहते हैं वो कश्मीर नहीं पूरा राज्य था जिसको जम्मू और कश्मीर इस नाम से हम जानते हैं। लेकिन उसमे जम्मू और कश्मीर के अलावा भी लद्दाख था और भी कई सारे क्षेत्र उसके साथ जुड़े हुए थे। १९४७ से पहले जब भारत में अंग्रेजो का राज था तो वहां पर एक राजा राज करते थे वो हिन्दू राजा थे उनका नाम था राजा हरी सिंह। इनके जो पूर्वज थे राजा गुलाब सिंह वो राजा रणजीत सिंह जो हुए उनका नाम हम सबने सुना होगा। एक बहुत बड़े राजा हुए वो सिक्ख थे उनका नाम आप सबने सुना होगा वो राजा रणजीत सिंह के दरबार में सरदार थे। सरदार माने पगड़ी वाले सरदार नहीं, उनके सेनापति थे। तो राजा गुलाब सिंह जो थे जब सिक्खो की और अंग्रेजों की लड़ाई हुई और सिक्ख उस लड़ाई में हार गए यानि रणजीत सिंह की फ़ौज हार गई। इस देश का इतिहास जब पढोगे तो एक बात याद रखना कि इस देश में जिसको भी राज्य मिला है वो हिन्दू से मिला है। हमको कई बार ऐसा लगता है कि इस देश पर पहले मुसलामानों ने कब्ज़ा कर लिया फिर मुसलामानों से अंग्रेजों ने कब्ज़ा कर लिया , न। इस देश को फिर से हिन्दुओं ने छीन लिया था लेकिन हिन्दुओं की फिर से आपस में फूट हुई, विरोध था आपस में इसलिए फिर अंग्रेजों ने हिन्दुओं से छीना। अंग्रेजों की जो अंतिम लड़ाई हुई वो किससे हुई, राजा रणजीत सिंह से। राजा रणजीत सिंह कौन थे , हिन्दू थे। हिन्दू राजा रणजीत सिंह के साथ जो उनका युद्ध हुआ उस युद्ध के अंदर हिन्दू सेनाएं यानी जो लाहौर उनकी राजधानी थी, लाहौर की फौजें हार गई। और हारने के बाद उसको उन्होंने वहां दण्डित किया। उन्होंने कहा कि अब हारी हुई सेना मुआवजा देगी। हिन्दुस्तान जैसी सेना तो थी नहीं कि हमने बांग्लादेश जीत लिया और उनके सिपाही एक लाख कैद कर लिए, उनको खिलाया पिलाया और बिना मुआवजा लिए छोड़ दिया। ऐसी बुजदिल काम नहीं किया अंगेजों ने। अंग्रेजों ने कहा कि ये एक करोड़ रूपया जो हमारा युद्ध में खर्च हुआ है ये जुर्माना देना होगा। लाहौर बर्बाद हो गया। अब चूँकि ये लड़ाई हार चुके थे, उनकी हालत ख़राब थी, आर्थिक पैसे-वैसे की समस्या बहुत थी। इनके पास पैसा नहीं था। तो ये जो राजा थे, गुलाब सिंह जो उनके सेनापति थे इन्होने उनसे (अंग्रेजों से) सौदेबाजी करनी शुरू की कि आप हमारे इलाके की जनता को सताओ मत। हम आप लोगों को पैसा-वैसा दे देते हैं। तो इन्होने पिछत्तर लाख रुपया देकर जम्मू-कश्मीर और लद्दाख का क्षेत्र था इसका पट्टा अपने नाम लिखा लिया इसलिए वो राजा घोषित हो गए। यहाँ से जम्मू-कश्मीर रियासत का इतिहास शुरू हुआ। ये घटना कब हुई, १८३७ में। १८३७ से १० वर्ष, १८३७ में राजा रणजीत सिंह की मृत्यु हुई। १८४७ में ये घटना हुई और 1857 में पहला स्वतंत्रता संग्राम हुआ। उस समय तक ये एक अलग रियासत बन चुकी थी कश्मीर की। कश्मीर की रियासत बनने के बाद इनका सम्बन्ध चलता रहा। अंग्रेजों से उनके मैत्री सम्बन्ध थे, दोस्ती थी। अंग्रेज इन्हे अपना मित्र मानते थे। और इस क्षेत्र के अंदर मुसलमान कश्मीर घाटी में बड़ी संख्या में रहते थे। हिन्दू जम्मू घाटी में बड़ी संख्या में रहते थे। और जो बौद्ध होते हैं वो भी हिन्दू होते हैं वो लद्दाख क्षेत्र में बहुत बड़ी संख्या में रहते थे ये तीनों क्षेत्र मिलकर जम्मू- कश्मीर रियासत थी। तो ये जो कश्मीर की रियासत थी इस कश्मीर की रियासत पर जब देश के अंदर आज़ादी की लड़ाई चलने लगी तो आज़ादी की लड़ाई में जब काफी बड़े पैमाने पर तैयारी होने लगी तो इनको लगने लगा कि कोई न कोई बात करनी पड़ेगी आंदोलनकारियों से, आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों से। तो उन्होंने एक गोलमेज कांफ्रेंस बुलाई। उसमे कांग्रेस की ओर से, उस समय जितने राजनैतिक दल थे उनकी ओर से लोगों को बुलाया गया। हिन्दुओं की ओर से मदनमोहन जी मालवीय गए। हिन्दुओं में जो अछूत कहलाते थे आज हरिजन कहलाते हैं उनकी ओर से डॉ. अम्बेडकर गए। मुसलमानों की ओर लियाकत खां बगैरह, और जिन्ना गए। बाकि सारे लोगों के साथ जो देश के अंदर देशी रियासतें थीं उनके प्रतिनिधि के नाते भी कुछ लोग गए। और उसमे से गए, देशी रियासतों की एक यूनियन बानी हुई थी, संघ ,उसके अध्यक्ष के नाते महाराजा हरी सिंह जो कश्मीर के उस समय राजा थे। कश्मीर के राजा ने वहां पर जब सब लोगों ने मांग की कि हिन्दुस्तान को आज़ाद किया जाये। अंग्रेज ये सोचता था कि हिंदुस्तानी राजे-रजवाड़े ये हमारी मदद करेंगें। आज़ादी के घोष में बात करेंगें तो राजा हरी सिंह ने उस समय घोषणा की कि हम चाहते हैं भारत स्वतंत्र हो जाये। भले ही अंग्रेजों से हमारी दोस्ती है लेकिन हम चाहते हैं कि भारत को आज़ादी मिले। और इसके कारण राजा हरी सिंह से अंग्रेज विरोध मानने लगे। और उसमे से ये बात तय हुई कि किसी न किसी ढंग से राजा हरी सिंह सजा मिलनी चाहिए कि वो हिंदुस्तान की आज़ादी की बात कर रहे हैं। और उसी समय एक और घटना हो गई। कश्मीर के अंदर जो मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र था उस मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र के अंदर एक स्कूल में एक अध्यापक ने जो के मुसलमान था उसने एक हिन्दू लड़के के साथ कुकर्म किया। जनता में बड़ी प्रतिक्रिया हुई। महाराज के पास ये खबर गई। महाराज ने उस अध्यापक को स्कूल की नौकरी से निकलवा दिया। स्कूल की नौकरी से जब वो अध्यापक निकलवा दिया गया तो मुसलामानों ने कहा कि हमारे मुसलमान के साथ ऐसा जुल्म हुआ, हमारे मुसलमान अध्यापक को निकाल दिया गया इसलिए मुसलामानों ने उसे अपना अध्यापक, अपना नेता करके शोर मचाना शुरू कर दिया। अब चूँकि अंग्रेज ये चाहते कि राजा हरी सिंह के खिलाफ आंदोलन चले और ये जो मुसलमान सज्जन थे इनका मोतीलाल नेहरू के साथ कोई सम्बन्ध भी था रिश्तेदारी भी थी तो उसके कारण चूँकि जवाहरलालनेहरु उस समय कांग्रेस के नेता थे। उन्होंने भी सोचा कि उनका घर का आदमी कश्मीर के अंदर नेता बना जा रहा है उन्होंने भी उसको मदद की। कांग्रेस उस समय देश का बड़ा राजनैतिक दल था उसके समर्थन मिला। और दूसरी ओर अंग्रेजों के द्वारा उसे समर्थन मिला। और धीरे धीरे वही अध्यापक जो के लिए स्कूल से निकाला गया था वो धीरे-धीरे वहां मुसलामानों का नेता बन गया। और उसने माँग करनी शुरू कर दी कि महाराजा सिंह को गद्दी से हटाया जाए। राजा हरी सिंह हिन्दुओं पक्ष लेते हैं, मुसलामानों सताते हैं। इनको यहाँ से हटाया जाए। इस धीरे-धीरे वहां पर जो कश्मीर के श्रीनगर घाटी के जो मुसलमान थे उन्होंने समर्थन देना शुरू कर दिया। शेष हिन्दुस्तान में कांग्रेस ने भी और मुस्लिम लीग ने भी और अंग्रेजों ने भी उसको समर्थन देना शुरू कर दिया और धीरे- आंदोलन खड़ा हो गया। इसी समय देश में आज़ादी की बात आ गयी। 1947 जब आने लगा तो सब मिलकर कश्मीर के राजा को ये समझाया कि अगर तुम मिल गए तो भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू बनने वाले हैं। और जवाहरलाल नेहरू जब प्रधानमंत्री नहीं हैं तब आपके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं तो अगर वो प्रधानमंत्री बन गए तो आपकी इज़्ज़त खतरे में पड़ जायेगी इसलिए भारत को आप कश्मीर में मत ले आना। ऐसा कहके महाराजा को समझाया गया। इस चक्कर में महाराजा ने, इधर तो महाराजा को ये समझाया गया। दूसरी ओर कश्मीर के ऊपर पकिस्तान बनते ही 14 अगस्त १९४७ को, १५ अगस्त को भारत आज़ाद हुआ उससे पहले ही भारत माता के तीन टुकड़े करके पूर्वी पकिस्तान और पश्चिमी पकिस्तान बना दिया गया और पश्चिमी पकिस्तान की उधर की जो मुसलमानी फौजें थीं उन फौजों ने कश्मीर घाटी के ऊपर हमला कर दिया। और हमला करके जब जब ये हुआ तो कश्मीर को भारत के अंदर मिलाने की बात तय हुई। पूरे दो महीने निकल गए कश्मीर का २/5 हिस्सा यानि 40% हिस्सा जो था पाकिस्तानियों ने उसे अपने कब्जे में कर लिया। ये सारा इतिहास आपकी जानकारी में रहना चाहिए। इस समय जब समझौते की बात चल रही थी उसी समय महाराज हरी सिंह इस बात के लिए तैयार हों इसके लिए संघ के जो सरसंघचालक थे परमपूज्यनीय गुरु जी इनको उनसे मिलवाया गया। उन्होंने कहा कि मैं चाहता कि भारत के अंदर कश्मीर मिले लेकिन मेरे और मेरे परिवार की और जो हिन्दू समाज है उसकी रक्षा की गारंटी कौन लेगा? तो गारंटी लेने के लिए, मध्यस्तता करने के लिए सरदार पटेल इसके गारंटर बने। इसके लिए परमपूज्यनीय गुरूजी को वहां जाना पड़ा। दिल्ली में उनको समझाया और उनके समझने के कारण कश्मीर भारत में विलय हुआ। उसके बाद जब विलय होने की बात हुई तो नेहरू जी नाराज हो गए बोले कि जब हम पहले कह रहे थे तब नहीं मिलाया अब नहीं। जैसे बच्चे रूठ जाते हैं न कि अभी हम मांग रहे थे, हमे नहीं दिया खाना अब हम नहीं खाते। ऐसे ही नेहरू जी नाराज हो गए। और उस नाराजगी के कारण क्या हुआ कि नेहरू मनाने में नेहरू जी ने शर्त रखी कि हम कश्मीर को भारत में मिलाएंगे तो लेकिन कश्मीर सरदार पटेल के आधीन नहीं रहेगा, गृहमंत्रालय के आधीन नहीं रहेगा वो विदेश मंत्रालय के आधीन रहेगा। दूसरी बात ये रहेगी कि राजा हरी सिंह को कश्मीर घाटी छोड़कर जाना पड़ेगा वो अपने राज्य में कभी लौटकर नहीं आयेंगें। तीसरी शर्त ये लगाई गई कि कश्मीर के अंदर जो वहां का नया निज़ाम होगा वहां की जो शासन व्यवस्था होगी उसके अंदर उसी अध्यापक को, जिसको मुसलामानों ने अपना नेता बना रखा था, जो हिन्दू विरोधी था, जो महाराजा के खिलाफ आंदोलन कर रहा था, जो जवाहरलाल नेहरू का रिश्ते में भाई लगता था उसी नेता को जब पकिस्तान ने हमला किया तो जान बचाने के लिए भाग गया था, इंदौर में उसका साला नौकरी करता था उसके घर में छुपा हुआ था, वहां से उसको लेकर वहां का मुख्यमंत्री बनाया गया, उसका नाम था शेख अब्दुल्लाह। आप सबने नाम पढ़ा होगा, आजकल जो नेता है फ़ारुक़ अब्दुल्लाह उसका बाप। तो वो जो शेख अब्दुल्लाह था उसको वहां मुख्यमंत्री बनाया गया। उस समय तक उसके अंदर कश्मीर का भारत में विभाजन हो गया। जिस समय पकिस्तान की फौजों ने हमला किया तो वहां के संघ के स्वमसेवकों ने पाकिस्तानी फौजों का मुकाबला किया। जब हिंदुस्तान की सेना सहायता के लिए गयी है तो उसके लिए उन्होंने वहां गोला-बारूद इकठ्ठा करने से लेकर हवाईअड्डे के मरम्मत करने का काम संघ के स्वमसेवकों ने किया और इसलिए संघ के स्वमसेवकों की मदद से उस समय तो कश्मीर का भारत में विलय हो सका और कश्मीर का जो कुछ भी हिस्सा बचाया जा सका वो संघ के कारण उस समय बचाया जा सका। लेकिन बाद में नेहरू जी की कृपा से, शेख अब्दुल्लाह के दबाब से इस देश के अंदर कश्मीर को कुछ विशेष अधिकार दिया जाए ये मांग उठाई जाने लगी। क्योंकि कश्मीर में मुसलमान ज्यादा हैं तो मुसलमान को विशेषाधिकार चाहिए। अरे भई मुसलमान-हिन्दू के नाम पर जब इस देश का विभाजन हो गया, हमने पकिस्तान बनवा दिया और पकिस्तान हमारे नेताओं ने चाहे गलती ही स्वीकार करके लेकिन स्वीकार कर चुके तो जिसको इस देश में नहीं रहना था उसके लिए रास्ते खुले तो वो हिंदुस्तान छोड़कर बाहर चला गया होता। एक बार जब बंटवारा हो गया तो बंटवारे के बाद उनका इस देश में कोई हिस्सा नहीं बचा। इस घर के अंदर हिस्सा लेने के वो कोई अधिकारी नहीं थे। इसलिए उन्होंने उस समय कहा कि इसको कोई विशेष अधिकार दिया जाना चाहिए। संविधान सभा के अंदर ये विषय आया। उस समय डॉ. भीमराव आंबेडकर भारत के कानून मंत्री थे। डॉ. आंबेडकर के सामने जब ये विषय लाया गया तो डॉ. आंबेडकर ने कहा कि मैं भारत सर्कार का कानून मंत्री हूँ मैं सम्पूर्ण भारत के हित की चिंता करूँगा। किसी एक व्यक्ति या किसी एक परिवार को खुश करने के लिए मैं कानून मंत्री नहीं बनाया गया हूँ इसलिए कश्मीर को विशेष अधिकार नहीं दिया जा सकता। उस समय कश्मीर में हिन्दुओं पर जो अत्याचार हो रहे थे, बंगलसेन जो आज बांग्लादेश बन गया, पूर्वी पकिस्तान से जो हिन्दुओं का निकाला जा रहा था उसके विरूद्ध ये उस समय का अंतिम मंत्रिमंडल था जो उस समय की भारत सरकार का मंत्रिमंडल था उसमे दो लोगों ने नेहरू जी का विरोध किया। एक तो डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने इस नाम पर कि किसी भी एक प्रदेश को कोई विशेषाधिकार नहीं दिया जा सकता। और दूसरे थे डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, उन्होंने भी कांग्रेस की और नेहरू जी की जो मुस्लिम वर्ग की जो हिन्दुविरोधी नीति थी उसका विरोध किया और ये दोनों लोग इतिहास में आता है कि ये दोनों लोग मंत्री पद छोड़कर, आज बी. पी. सिंह मंत्री पद छोड़ आये होंगे तो लोगों ने कि साहब बड़ा ईमानदार आदमी है उसने मंत्री पद छोड़ दिया उसको प्रधानमंत्री बनवा दिया। लेकिन ये दोनों लोग श्यामाप्रसाद मुखर्जी और डॉ. अम्बेडकर, ये दोनों मंत्री पद छोड़ आये थे काहे के लिए कि कश्मीर के हिन्दुओं की रक्षा करनी है। बाहर आने के बाद डॉ. अम्बेडकर को भी इस मुद्दे पर अपना मंत्री पद छोड़ना पड़ा। बाद में कृष्णास्वामी अय्यंगार करके दक्षिण भारत के सज्जन थे उनको कानून मंत्री बनाया गया और उनके मंत्रिमंडल के काल में संविधान में एक धारा जोड़ी गयी जिसके अंदर इस कश्मीर क्षेत्र को विशेष अधिकार दिया गया उस धारा को कहते हैं धारा 370, अम्बेडकर ने अपने कानून मंत्री रहते हुए इस धारा को लागू नहीं होने दिया। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के रहते संविधान के अंदर ये धारा लायी नहीं जा सकती थी। लेकिन बाद में ये कहा गया कि ये धारा है अभी कुछ दिनों के लिए, बाद में इस धारा को विशेष अधिकार से हटा दिया जायेगा ये धारा 370 क्या है ? इस धारा 370 के अंदर एक बहुत बड़ी व्यवस्था है कि कश्मीर को भारत के अंदर एक विशेष दर्जा दे दिया गया। जैसे हम लोग उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं हम लोग चाहे तो हरियाणा चले जाएँ, दिल्ली चले जाएं, एक जिले से दूसरे जिले में या एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में, मध्य प्रदेश चले जाएं, राजस्थान चले जाएं, दिल्ली, बम्बई कहीं भी चले जाएं अपना नौकरी कर सकते हैं, दूकान कर सकते हैं, व्यापार कर सकते हैं, मकान खरीद सकते हैं लेकिन कश्मीर के अंदर कश्मीर के बाहर का कोई भी व्यक्ति हिन्दुस्तान से जाकर वहां पर अपना मकान नहीं बना सकता, कोई संपत्ति नहीं खरीद सकता। उनको विशेष अधिकार है यानी देश का प्रधानमंत्री, हिन्दुस्तान का राष्ट्रपति भी चाहे कि भई एक कोठी मैं कश्मीर में बनवा लूँ बड़ी अच्छी जगह है तो उन्हें बनाने का अधिकार नहीं है क्योकि वो विशेष अधिकार वाला क्षेत्र है। अगर कश्मीर का कोई नागरिक कश्मीर छोड़कर शेष भारत में जायेगा तो तो उसे रहने दिया जायेगा, उसको संपत्ति बनाने दी जाएगी लेकिन कश्मीर में जाकर अगर बसना चाहेगा तो उसको रहने का, बसने का कोई अधिकार नहीं है। ऐसे ही वहां के कानून में हिन्दुस्तान का संसद कानून व्यवस्था में कानून पास करता है तो उस कानून को जब तक वहां की विधान सभा स्वीकृति नहीं दे देगी, वहां की सरकार स्वीकृति नहीं दे देगी तब तक वो सारे देश का कानून नहीं बन सकता। संविधान में कोई कानून बनता है मान लो सरकार ने कोई कानून बनाया आज की तारीख पर तो सारे देश में वो आज की तारीख से लागू हो जाता है लेकिन कश्मीर में लागू नहीं हो सकता। ऐसे ही भारत का जो सर्वोच्च न्यायालय कोई निर्णय देगा तो सारे देश के अंदर लागू हो जाता है लेकिन कश्मीर के अंदर लागू हो या न लागू हो ये उनके यहाँ की मर्जी पर है। ऐसी बहुत सारी चीजें वहां खड़ी कर दीं गईं। इसके कारण कश्मीर के ऊपर शेष भारत का नियंत्रण इस प्रकार से नहीं रहा। और इसका ये परिणाम हुआ कि वहां पर चूँकि मुसलमान बहुत अधिक संख्या में थे। वहां का मुख्यमंत्री मुसलमान था। वहां की सरकार पर मुसलामानों का दबाब था और उनकी मदद करते थे पाकिस्तानी घुसपैठिए। तो उन्होंने हिन्दुओं को मारना-पीटना-जलाना शुरू कर दिया और इस सीमा तक किया कि वहां से कश्मीर से बड़ी संख्या में हिन्दू बाहर चलते चले आये। आज से नहीं लगातार पिछले चालीस साल से हिन्दुओं को वहां मारा-पीटा और भगाया जा रहा है। हिन्दुओं के घर जला दिए जाते हैं। हिन्दुओं के मंदिर लूट लिए जाते हैं, मूर्तियां तोड़ दीं जाती हैं, हिन्दू लड़कियों को उठा लिया जाता है। वहां पर हिन्दू लड़की भी बिना बुर्के के नहीं जा सकती। अब यहाँ कोई कल्पना नहीं कर सकता। दूसरा उन्होंने कानून बनाया कि मुसलमान अगर पकिस्तान भी चला गया 1947 में भारत के विभाजन में (बहुत सारे मुसलमान हिंदुस्तान छोड़ कर चले गए थे १९४७ में पकिस्तान) वो भी अगर लौटकर आना चाहे तो कश्मीर में घुसे तो जो संपत्ति, दूकान, मकान सब छोड़कर चले गए थे और उसमे कोई पंजाब के या कश्मीर से आया हुआ और जो पाकिस्तान बनते हुए आया हुआ हिन्दू ने वहां रहने शुरू कर दिया तो उससे मकान खाली करके उसको दे दिया जाये क्योकि वो उसका असली मालिक है। तो ये इस प्रकार के कानून बनाये गए जिसके कारण हिन्दू तो अपनी जान बचाने के लिए कश्मीर से भागता रहा और मुसलमान पकिस्तान से जाकर वहां पर घुसपैठ करते रहे। आज धीरे धीरे वहां की स्थिति ये हो गई कि कश्मीर के अंदर एक प्रकार से 95% से भी अधिक मुसलमान हो गया। हिन्दू वहां बहुत थोड़ी संख्या में रह गया। और हिन्दू की संख्या कम होने के कारण वहां पर हिन्दुओं के ऊपर और जुल्म ज्यादतियाँ होने लगी। और पिछले दो-तीन महीने से, जबसे ये चुनाव हुए हैं, इस चुनाव से पहले राजीव गाँधी और फ़ारूक़ अब्दुल्लाह की मिली-जुली सरकार चलती थी वहां यानी कांग्रेस की और नेशनल कांफ्रेंस की। उन्होंने मिलकर तय किया कि हिन्दुओं को साफ़ ही कर देना चाहिए ये बिलकुल अलग हो जाना चाहिए ताकि हमारी सरकार मजबूती से चले। और इसके लिए इतने वहां पर अत्याचार हुए हिन्दुओं के ऊपर कि आप कल्पना कर सकते हैं अभी आपके यहाँ चुनाव हुए। हममे से सब तो शायद नहीं पहुंचे होंगे वोट डालने वाली उम्र में, लेकिन चुनाव का शोर शराबा सबने देखा होगा। सबके घर के परिवार के लोग वोट डालने गए होंगे लेकिन वहां पर घोषणा की गई कि कोई भी चुनाव में खड़ा नहीं होगा हिन्दू। जिस आदमी को पाकिस्तान के एजेंट कहेँगे उसी को वहां पर खड़े होने का अधिकार है। बाकी कोई हिन्दू-मुसलमान चुनाव नहीं लड़ सकता। और लड़ेगा तो मार दिया जायेगा। कश्मीर के अंदर तीन लोकसभा की सीट हैं। इन तीन सीटों में से एक पर तो जो उनका खड़ा हुआ प्रत्याशी था उसके अलावा किसी और प्रत्याशी ने तो पर्चा भरने की हिम्मत नहीं की। बाकी दोनों जो स्थान थे उन दोनों स्थानों पर कुछ लोगों ने हिम्मत करी। सरकार मतलब पुलिस-वुलिस की मदद लेकर कैसे भी अपना परचा दाखिल कर दिया, नामांकन पत्र भर दिए। तो वहां पर उनको इतना प्रचार किया गया कि कोई भी अगर वोट डालने के लिए जाएगा इनको तो उसको मार दिया जायेगा। चौराहों पर कफ़न लटका दिए गए। एक बड़ी-बड़ी पेटियां होती है लकड़ी की, जिन्हे ताबूत कहते हैं जिसमे मुर्दे को बंद करके जमीन में गाढ़ दिया जाता है। उस ताबूत को चौराहों पर खोल कर रखवा दिया गया कि जो कोई वोट डालने जाना चाहे उसके लिए ताबूत खुले पड़े हैं इसके अंदर जो कोई जाना चाहेगा उसे मार दिया जायेगा। उसको कफ़न में लपेट कर ताबूत में रख दिया जायेगा। इतना आतंक हो गया कि डर के मारे लोग वोट डालने के लिए नहीं गए। कुछ 2% वोट पड़ा। और 2 % वोट पर वहां के पार्लियामेंट के 2 मेम्बर चुनकर पहुंचे और तीनों मुसलमान चुनकर कश्मीर घाटी में पहुंचे। और तीनों ने मिलकर आज वो 2 % वोट के आधार पर वहां पर प्रतिनिधित्व करते हैं। और इस चुनाव के बाद वहां की स्थिति ऐसी खराब हो गई कि आप लोग अगर सुने, समझे, पढ़ते होंगे अखबारों में तो पढ़ने के बाद दुखता होगा। अब वहां क्या स्थिति है ? वहां पर सोकर उठो तो दरवाजे पर पोस्टर लगा मिलेगा कि इस घर के मालिक कल से फलाने मियाँ होंगे। किसी हिन्दू दरवाजे पर पोस्टर लगा दिया जाता है कि इस मकान को खाली कर दो इस मकान का मालिक कल से फ़लाना मुसलमान होगा। अगर हिन्दू अपनी बचाना चाहता है तो उसे मकान खाली करना पड़ेगा नहीं तो मार दिया जायेगा। ये तो मकान-जमीन की बात हुई। वहां तो लाउडस्पीकर लगा दिए मस्जिदों से अंदर गलियों जितने बिजली के, टेलीफोन के खम्भे है सब पर लाउडस्पीकर के हॉर्न बाँध दिए। हमारे यहाँ तो गली में बल्ली पर दो लगा दिए जाते हैं सारे इलाके भर में शोर होता है सबेरे सबेरे गीत बजता है। तुम्हारे कमरे में कान तक में घुस जाता है। लेकिन वहां तो हर गली में लगा दिया जाता है और उस गली के अंदर स्पीकर पर नारे लगाए जाते हैं "हिंदुस्तानी कुत्तों भाग जाओ, अपनी जान बचाना चाहते हो तो चले जाओ" वहां पर नाम ले लेकर लाउड स्पीकर पर चिल्लाया जाता है फ़लाने पंडित की लड़की जिसका नाम उमा देवी था कल से उसका नाम रज़िया बेगम होगा। फलाने की वीवी होगी उस मुसलमान की वीवी। अब कल्पना करो किसी की माँ को, किसी की पत्नी को, किसी की बेटी के बारे में लाउडस्पीकरों पर शहर में चिल्लाया जाए कि कल से ये फलाने मुसलमान की वीवी होगी। और अगर हिन्दू उसका विरोध करते हैं तो मारे जायेंगे। जबरदस्ती उस लड़की को घर से उठाने की हिम्मत रखते हैं मुसलमान वहां पर। ये इस देश के अंदर स्थिति है। वहां पर न तो हिन्दू की संपत्ति सुरक्षित है न ही सम्मान सुरक्षित है। सड़कों पर अगर हिन्दू निकलता है तो लोग उसको मारते हैं, नौंचते हैं, पीटते हैं, उसको गालियां देते हैं, उसके ऊपर थूक देते हैं यहाँ तक कि । और मुसलमानों ने वहां पर अपनी मस्जिदों में हथियारों की व्यवस्था कर रखी है। हिन्दुओं को वहां डराया जाता है इसलिए वहां पर सारे सरकारी दफ्तर बने हुए हैं। किसी सरकारी दफ्तर में काम नहीं होता। जिन सारे दफ्तरों पर हिन्दुस्तान, इंडिया, भारत लिखा होता था उन सब के नाम बदल दिए गए जैसे स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया, जगह जगह इसकी ब्रांच खुलीं हुई हैं, भारतीय स्टेट बैंक का नाम मिटाकर मुस्लिम बैंक ऑफ़ कश्मीर कर दिया गया। भारत भी नाम मिटा दिया गया, हिन्दू भी नाम मिटा दिया गया। लाइफ इन्स्योरेन्स कारपोरेशन (LIC) उसका नाम बदल दिया गया। सारे दफ्तर बैंक सब बंद कर दिए गए। जहाँ कहीं इंडिया लिखा हुआ था, भारत लिखा हुआ था, सब बोर्ड तोड़ दिए गए, मिटा दिए गए। स्कूलों में कहा गया कि हर स्कूल में हर बच्चे को क़ुरान पढ़नी पड़ेगी चाहे हिन्दुओं का स्कूल हो या मुसलामानों का स्कूल हो। जिस स्कूल के अध्यापकों ने कहा कि भई हमारे यहाँ तो सब बच्चे हिन्दुओं के पढ़ते हैं यहाँ तो क़ुरान पढ़ने को बच्चे तैयार नहीं होंगे, घरवाले पढ़वाने को तैयार नहीं होंगे, उन स्कूलों को या तो बंद करवा दिया गया या तो बम से उड़ा दिया गया। वहां हिन्दुओ के स्कूल सुरक्षित नहीं हैं। मंदिरों को तोड़ दिया गया। वहां पर ये स्थिति हो गई कि वहां पर कोई मंदिर में नहीं जा सकता। बड़े बड़े हज़ारों हज़ार साल पुराने मंदिर तोड़ दिए गए, जला दिए गए। वहां पर सरकारी दफ्तरों में कोई काम करने नहीं आता। जो कोई हिन्दू के नाम पर बात करता है, कोई बड़ा नेता हो, भारतीय जनता पार्टी हिन्दू की बात करती है, भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष टिकालाल टिक्कू, अच्छे बड़े दबंग नेता थे वहां के वकालत करते थे उन्होंने मेरठ कॉलेज से LLB किया। सड़क पर सरे आम गोली से उड़ा दिया गया। उनको एक दिन पहले पत्र लिखा गया कि तुम घाटी छोड़कर भाग जाओ। उन्होंने कहा कि मैं हिन्दुओं को यहाँ मरने के लिए छोड़कर नहीं जा सकता हूँ तो गोली से मार दिया। प्रेम नाथ भट्ट 'ऑर्गेनाइज़र' अंग्रेजी का एक अखबार निकलता है, उसमे उनके लेख छपते थे, बहुत बड़े पत्रकार थे, हमारे संघ के, वहां के संघचालक थे। सरे आम सड़क पर उनको गोली मार दी गयी। वहां का जो टेलीफोन केंद्र था उसके जो निदेशक थे लाशा कौल, उनको सड़क पर गोली मार दी। वहां की स्थिति ये है कि वहां किसी हिन्दू का जीवन सुरक्षित नहीं है। और उसका परिणाम ये हुआ कि वहां के हिन्दू अब अपनी संपत्ति छोड़कर जान बचाकर भाग रहा है। आज की तारीख में ३०००० परिवार के सवा लाख से भी अधिक लोग अपना घर छोड़कर, कश्मीर घाटी छोड़कर, अपना घर, मकान, संपत्ति, दुकान, जो कोई वेश बदलकर भाग सका, जो अपनी महिलाओं को लेकर भाग सका, बच्चों को लेकर भाग सका, जो कुछ उसके पास था उसको लेकर भाग सका वो भाग कर कहाँ शरण लिया, किसी ने जम्मू में शरण ली, किसी ने दिल्ली में शरण ली, कुछ परिवारों ने मुज्जफरनगर में, रुड़की में, हरिद्धार में, आस-पास में शरण लिया क्योंकि वो वहां वापस नहीं जा सकते थे ये देश के अंदर, जिसको हम हिन्दुस्तान कहते हैं, जिसको हम भारत कहते हैं जो हमारा स्वतंत्र भारत है जिसे हम कहते हैं कि हमने आज़ादी पाई है। ४०-४२ वर्ष हो गए। उस ४० साल की आज़ादी के बाद हमारे देश के अंदर इस हिन्दुस्तान में हिन्दू को शरणार्थी के तौर पर अपनी जान बचाकर, संपत्ति छोड़कर भागना पड़ता है। ये देश के अंदर समस्या है। कश्मीर की समस्या, इनकी मांग क्या है कि कश्मीर को स्वतंत्र मुस्लिम रियासत बनाना है। कश्मीर को पकिस्तान में मिलाना है। और इसलिए वो क्या कर सकते हैं आप रोज अखबार पढ़ते होंगे। रोज बम फटता है, रोज अपहरण होता है, किसी को भी उठा कर ले जाते हैं। जेल तोड़कर वहां से कैदी भाग जाते हैं। सब कुछ वहां पर होता है। और सरकार के नाम पर वहां कोई काम नहीं होता। हिन्दू की हिफाज़त की कोई व्यवस्था नहीं हो रही। वहां पर ये जो हिन्दू भाग कर आये हैं भागकर अपनी जान बचाकर तो दिल्ली में, जम्मू में, कठुआ में, जहाँ जहाँ भी हैं वहां अपने संघ के स्वमसेवकों ने स्थान-स्थान पर उनके लिए कैंप लगाए हैं। उनके लिए शिविर स्कूलों में, भवनों में, धर्मशालाओं में या ऐसे शामियाने लगाकर उनके रहने की व्यवस्था की है। परिवार है, महिलाएं हैं, बच्चे हैं, बुड्ढे हैं, बीमार हैं, सब प्रकार के लोग हैं, उनके लिए दवाई की, खाने की, कपडे की, बर्तन की, बिस्तर की सबकी व्यवस्था की जा रही है। इतने लाखों लोगों की व्यवस्था वहां संघ के लोग कर रहे हैं। प्रतिदिन उनके लिए सब प्रकार की व्यवस्था करनी पड़ती है। ये कश्मीर की समस्या है। ऐसे ही एक समस्या स्मरण करवाई खालिस्तान की। खालिस्तान भी माने हमारे देश का कश्मीर के थोड़ा नीचे उतरेंगे तो पंजाब प्रान्त है। पकिस्तान से उसकी सीमायें लगती हैं। पहले पंजाब जो था पांच नदियों का प्रदेश हमारा पंचनव्य कहलाता था। वो पाँचों नदियों का प्रदेश बाँट दिया गया। आधा हिस्सा था जो पश्चिम का वो पकिस्तान बन गया। और पूर्व का हिस्सा भारत में रह गया। आधा पंजाब का हमारे पास हैc ये आधा पंजाब भी जो था इस पंजाब के अंदर जिस समय पकिस्तान बना उस समय भी बड़ी संख्या में हिन्दू यहाँ आकर बस गए, वहां से भाग आये। आज वहां पर अधिकांश आबादी हिन्दुओं की है। लेकिन हिन्दुओं में कुछ लोग केशधारी हैं। केशधारी जिनको हम सरदार के नाम से जानते हैं। कुछ लोग ग़ैरकेशधारी है। दोनों हिन्दू है, दोनों के पुरखे एक हैं। दोनों की रिश्तेदारियाँ हैं आपस में, सब कुछ है। लेकिन इन केशधारियों के बीच में कुछ लोगों को विदेशी तत्वों ने जीत लिया। पकिस्तान ने चूँकि पाकिस्तान के हमले में ७१ की लड़ाई में आज से १९-२० साल पहले जो युद्ध हुआ था उसमे पकिस्तान का जो पूर्वी हिस्सा था उसे काट कर बांग्लादेश बना दिया था हिन्दुस्तान की फौजों ने। पकिस्तान उस बात का बदला लेना चाहता है। और इसलिए उसने बड़ी संख्या में ट्रेंड लोगों को जो सिक्खो का भेष बनाकर, अलग-अलग तरीकों से इस देश में घुस आये। और उन्होंने वहां पर सिक्ख और गैरसिक्ख लोग जिनकी आबादी लगभग-लगभग बराबर है। केशधारी हिन्दू है उसकी आबादी ५२% है। १०० में से ५२ केशधारी हैं, ४८ गैर केशधारी हैं। लगभग बराबर की आबादी होते हुए भी चूँकि सिक्खों का अपना दबदबा है, उनकी सबकी पर्सनलिटी अलग से दिखाई देती है, उनके पास गुरूद्वारे हैं उनकी आड़ में उन्ही में से कुछ लोगों को कहा कि तुम्हारे लिए स्वतंत्र रियासत हम बनवा कर देंगे। खामखाँ तुम हिंदुओं की गुलामी करते हो। उनके मन में ये भाव खड़ा किया कि तुम हिन्दू नहीं हो। ये कोई आज से नहीं खड़ा किया ये तो पिछले १०० साल से चल रहा है। हम भी बोलते हैं अनजाने में, ट्रकों पर लिखा होता है, स्कूलों में पढ़ाया जाता है "हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई , आपस में सब भाई-भाई"मुसलमान तो थी है बाहर से आया है, ईसाई चलो विदेशी धर्म है बाहर से आया हुआ है। लेकिन सिक्ख तो हमारे हिन्दू समाज में ही पैदा हुआ। गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज ने, गुरु नानक देव जी ने हिन्दुओं में से ही कुछ लोगों को अपना शिष्य बनाया। हमारे यहाँ बहुत से गुरु है। कोई शंकराचार्य जी का गुरु है, कोई साईं बाबा का गुरु है जब मुसलमानों के इस देश पर आक्रमण हो रहे थे, उनको जबरदस्ती मुसलमान बनाया जा रहा था उस समय गुरु नानक देव जी ने हिन्दुओं के अंदर भक्ति भाव हिन्दू धर्म के प्रति खड़ी रहे इसके लिए सिक्ख पंथ चलाया और बाद में जब हिन्दुओं पर और अत्याचार होने लगे, पांचवें गुरु अर्जुन देव जी को जिन्दा जलाने की कोशिश की मुसलमानों ने मार डाला फिर उसके बाद नौवें गुरु जो हुए वो महादेव जी महाराज यानि गुरु गोविन्द सिंह जी के पिता, उनका सिर दिल्ली के चांदनी चौक में मुसलमानों ने काट दिया, उनको मृत्युदंड दिया गया था, मुसलमान हो जाओ नहीं तो तुम्हारा सर काट दिया जायेगा। तब यह हुआ कि मुसलामानों के आक्रमण से हिन्दुओं की रक्षा की जाये इसके लिए गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज ने एक संगठन खड़ा किया और उस संगठन का नाम रखा खालसा पंथ। खालसा माने शुद्ध। शुद्ध हिन्दू जो थे उनके लिए उन्होंने खालसा पंथ शुरू किया और उस खालसा पंथ के अंदर उन्होंने क्या कहा कि भई हमको तो मुसलमानों के अत्याचार से हिन्दू समाज की रक्षा करनी है। मुसलामानों ने स्वम उनके पिता की हत्या की थी उनके परबाबा की हत्या की थी मुसलामानों ने। उन्होंने देखा था कैसे कैसे अत्याचार हुए है तो उन्होंने कहा कि इन मुसलामानों के आक्रमण से हिन्दू समाज की रक्षा करनी है तो हर घर से एक लड़के को खालसा फ़ौज में भर्ती होना है। और खालसा ने क्या करना है खालसा ने एक सिपाही की तरीके से खाने में, पहनने में, सिर्फ फैशन बनाने में, इस सब में न लगे इसलिए उसको बाल कटाने में, बाल काढ़ने में समय न लगे इसलिए क्या करना, बाल बढ़ा लो, पगड़ी बाँध लो सर की भी रक्षा होगी, अलग से पहचान भी रहेगी और ये जो फालतू कटिंग बटिंग करवाने में समय लगता है इससे बचे रहोगे। तो दाढ़ी मूंछ बाल ये सब कटवाने का लफड़ा नहीं। उन्होंने कहा कि सिपाही को जरा मजबूती से रहना चाहिए इसलिए उसका कड़ा उसकी पहचान, उसको प्रतिज्ञा हर समय अपनी याद आती रहे, उसके पास तलवार हमेशा रहनी चाहिए, क्रपाड़ रखी, उसका कच्छा, कंघा, ये सब जो उसकी पहचान होती है सिपाही की ये सब उसके साथ रहे। और हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने एक सेना बनाई, एक संगठन बनाया जैसे हमने संघ का स्वम् सेवक बनाया वैसे ही हिन्दू समाज का संगठन बनाना चाहते हो हर घर से लोगों को आना चाहिए, संगठन खड़ा करना चाहिए इसलिए जब उन्होंने संगठन बनाया तो ये नहीं कहा कि हम हिन्दुओं के खिलाफ संगठन बना रहे हैं। उन्होंने क्या कहा खालसा पंथ की स्थापना करते समय कि “सकल जगत में खालसा पंथ जागे, सारी दुनिया में क्या हो खालसा पंथ की गर्जना हो। पंथ कहा उसको धर्म नहीं कहा। “जगे धर्म हिन्दू सकल भंड बाजे”। ये काहे के लिए बनाया उन्होंने खालसा पंथ कि हिन्दू धर्म जगे और हिन्दू धर्म की सारी बुराइयाँ दूर हों, इसके लिए उन्होंने खालसा पंथ बनाया लेकिन उन खालसों में से धीरे धीरे गुरूद्वारे बन गए, संपत्ति आने लगी, राजनीती में पहुँच गए तो उनमे से दस - बीस लोगों को लगा कि हमारी राजनीती इसी में से चलेगी तो सिक्खो को अलग खड़ा किया जाये। और पाकिस्तान ने, अमेरिका ने, बाकी सारे शत्रु देशों ने उनकी मदद करनी शुरू की उन्हें हथियार देना शुरू किया। कुछ नौजवानों ने नशीली दवाइयों का आदी बनाकर उनको हथियार दिए गए और ये सब बनाकर उन्होंने कोई खालसा कोलिबेरशन फाॅर्स बना दी तो कोई बब्बर खालसा बना दिया, पता नहीं क्या क्या बना डाला। ये सब लोग कोई बहुत समझदार, बहुत पढ़े-लिखे, माने इनके पास कोई नक्शा है कि देश के अंदर कैसा क्लास रैंक है, कोई नक्शा नहीं है। ये सब विदेशी एजेंट हैं लेकिन इन विदेशी एजेंटों को सिक्खों की आड़ में हिन्दू और सिक्ख को लड़ाने की कोशिश की गयी ये भी वाकया है और वो क्या कहते हैं कि हमे खालिस्तान चाहिए। खालिस्तान माने जहाँ खालसा रहते हों। अरे खालिस्तान क्या होता है यानि तुम भी हमारे घर के भाई हो, तुम भी हमारे परिवार के अंग हो, तुमको अलग कैसे कर दिया जा सकता है ! तो वहां पर आम हिन्दू-सिक्ख नहीं लड़ता । लोग जो ये कहते है जैसे आप मुजफ्फर नगर के रहने वाले हो या मेरठ पड़ोस में है अपने, मुरादाबाद है। दंगे किसके होते हैं हिन्दू मुसलमान के। हिन्दू मुसलमान को नहीं छोड़ता है मुसलमान हिन्दू को नहीं छोड़ता है। किसी बस्ती में अगर अकेला हिन्दू फंस जाए तो उसका काम तमाम। फिर ये नहीं पूछता। एक मोहल्ले के सौ दौसौ पांचसौ हिन्दू इकट्ठे होते हैं, दूसरे मोहल्ले के मुसलमान इकट्ठे होते हैं , अल्लाह ओ अकबर- हर हर महादेव होता है पत्थर- गोली, ईंट-पत्थर जो जो चलता है, वो सब कुछ चलता है क्यों, क्योकि वो दो अलग अलग समुदाय है और उन दो समुदायों में झगड़ा होता है। लेकिन पंजाब में वर्षों से ये झगड़ा चल रहा है लेकिन इस झगडे के बावजूद आज तक वहां पर ऐसी कोई घटना नहीं हुई कि सौ दौसौ पांचसौ सिक्ख इकट्ठे हुए हों, सौ दौसौ पांचसौ हिन्दू माने गैर सिक्ख जो हिन्दू हैं वो इकठ्ठा हो गए हों और दोनों ने आमने सामने तलवार, बन्दूक या भाले, कोई दो चार- दस पांच आतंकवादी हैं वो बन्दूक लेकर आते हैं, AK४७ और कौन कौन सी और कौन कौन सी अलग अलग विदेशों से आयी हुई हथियार हैं और सोते जागते रास्ता चलते आदमी को गोली मार जाना या कहीं बम छिपा कर रख देना ये कौन सी बड़ी बहादुरी की बात है। लेकिन वहां पर जो ये कहते हैं कि दो समुदायों का झगड़ा है, कोई नहीं, क्योकि सब जानते है इसी परिवार के हैं एक ही परिवार में से एक भाई ने केश बढ़ाकर पगड़ी बाँध ली तो वो सिक्ख हो गया दूसरे ने बाल कटा लिए तो वो मोना हो गया। दोनों है, दोनों कहते हैं कि हम हिन्दू हैं, दोनों कहते हैं कि हमारे पुरखे एक थे, दोनों कहते हैं कि हमारे गुरु एक थे। फिर काहे का झगड़ा है। ये झगड़ा विदेशी एजेंटों का है लेकिन उसमे एक कहीं न कहीं ये गड़बड़ है कि लोगों के मन में से हिन्दू का भाव कुछ कमजोर है। और इस देश में बहुत सारी समस्याएं हैं एक समस्या और थोड़ा सा नीचे जिसको हम बिहार प्रदेश कहते हैं। बिहार इस देश के अंदर कोई बहुत बड़ी करीब २०० किलोमीटर चौड़ी पट्टी है, कच्छ से लेकर और मणिपुर तक है, ऐसे भारत माता के बेल्ट विंद्याचल के ऊपर स्थित है ये देश का सबसे बड़ा केंद्र है, जैसे वो होता है न बक्सा जिसमे सभी कीमती चीजें सुरक्षित की जाती है तो हिंदुस्तान की जितनी आज के युग की बहुमूल्य धातुएं हैं चाहे वो सोना है, लोहा है, कोयला है, अब्रक है और बहुत सारी इस प्रकार की चीजें हैं, यूरेनियम है, ये सब जिस बेल्ट के अंदर दबी हुईं है ये बेल्ट जो है इस बेल्ट के ऊपर पठारी क्षेत्र है और इसके ऊपर बड़े-बड़े जंगल खड़े हुए हैं, ईसाईयों की नजर है कि ये क्षेत्र उनके कब्जे में आना चाहिए लेकिन उस क्षेत्र के अंदर तो बनवासी रहते हैं तो वो तो बड़े बहादुर हैं जब मुसलामानों का आक्रमण हुआ तो मुसलमानों के आक्रमण में वो मुसलमान नहीं बने बल्कि अपना शहर छोड़कर उन्होंने जंगलों में बसना शुरू कर दिया। आपने महाराणा प्रताप की कथाएं सुनी होंगी, वो जंगल में रहते थे घास की रोटी खाते थे। शहर छोड़कर जंगल में क्यों चले गए थे, मुसलामानों के आक्रमण से अपनी रक्षा करने के लिए। तो जो बनवासी थे, इन बनवासियों को मुसलमान तो मुसलमान नहीं बना सके लेकिन ईसाईयों ने जाकर धीरे धीरे उस क्षेत्र के अंदर अपनी पकड़ बना ली। और जिन- जिन क्षेत्रों में हमारे ये बड़े बड़े उद्योग- धंधे हैं, भिलाई है, दुर्गापुर है, राउरकेला है ये बड़े बड़े जो इस्पात यंत्र हैं ये सब कहाँ लगें हुए हैं इसी बेल्ट में लगे हुए हैं क्योकि सबसे अधिक हमारी जो कुछ भी खनिज सम्पदा है वो इस बेल्ट के अंदर भरी हुयी है। आने वाले समय के अंदर भारत अगर तरक्की करेगा आर्थिक दृष्टि से तो इस बेल्ट की मदद से करने वाला है। इस क्षेत्र को अलग किया जा सके भारत से, इसके लिए उन्होंने क्या आंदोलन शुरू कर रखा है झारखण्ड आंदोलन शुरू कर रखा है आपने सुना है, पहले उन्होंने बनवासियों को ईसाई बनाया और ईसाईयों को उन्होंने क्या कहा ? इसको झारखण्ड करके उन्होंने कहा कि अपना क्षेत्र है इसमें थोड़ा हिस्सा मध्य प्रदेश का है, थोड़ा उड़ीसा का है, थोड़ा बिहार का है इस सब को मिला कर उन्होंने कहा कि उस क्षेत्र को हमारा अलग से स्वतंत्र देश बना दिया जाये। उसी के पास उन्होंने कोल्हान स्टेट करके उन्होंने मांग कर रखी है, वहां भी इस बात के लिए आंदोलन चल रहा है। अपने पड़ोस में ये सारे जो आंदोलन चलते है इनके बारे में अपने कोई जानकारी नहीं है। अलग अलग प्रान्त बनाने की बात कर रहे हैं। ऐसे ही उधर जो हमारा भारत का पूर्वी हिस्सा है उस पूर्वी हिस्से के अंदर दुनिया के अंदर रणनीतिक दृष्टि से बड़े महत्व की जगह हैं। आने वाले समय के अंदर जो स्ट्रैटेजीकली जो अगला विश्वयुद्ध होगा उसके अंदर जो महत्व के स्थान हैं उसमे असम की जो पहाड़ियां हैं वो भी होंगी और कश्मीर का जो सियाचिन वाला क्षेत्र है वो विश्वयुद्ध की दृष्टि से महत्व के क्षेत्र माने जा रहे हैं आने वाले विश्वयुद्ध में। इसलिए वे चाहते हैं कि ये क्षेत्र भी स्वतंत्र होकर ईसाईयों के कब्जे में आ जाए इसलिए ईसाईयों ने सौ-डेढ़ सौ साल में वहां पर जब तक उनका राज रहा अंग्रेजो का, उन्होंने उनको ईसाई बनाने की कोशिश की। आज जो वहां पर नागालैंड के लिए पृथक नागालैंड का आंदोलन चल रहा है, तो कहीं मिजोरम के लिए पृथक मिजोलैंड का आंदोलन चलता है, तो कही मेघालय के लिए अलग से उनका आंदोलन चलता है, त्रिपुरा ईसाईयों का आंदोलन चलता है, अरुणांचल को अलग करने की बात करते है ये सब अलग अलग प्रान्त है। और अभी अभी आपने अख़बारों में पढ़ा होगा कि बुलसाना शुरू हो गई है वो क्या है? वुदरलैंड की मांग चल रही है। ये सब ईसाईयों के द्वारा चलाये जाने वाले आंदोलन हैं जो अपने अपने क्षेत्र को भारत से अलग करना चाहते हैं। अलग अपना रियासत बनाना चाहते है। वहां के रहने वाले लोगों के मन में ये भाव बैठालते हैं कि ये सब काहे के कारण हो रहा है कि तुम क्या हो तुम्हारी बड़ी छोटी जाति है। तुम निचली जाति के हो। तुम्हारी देश के अंदर कुछ लाख जनसँख्या है और ये हिन्दू करोडो की संख्या में है ये तुम्हे खा जायेंगे, हजम कर जायेंगे इसलिए तुम क्या करो हिन्दू धर्म छोड़कर ईसाई बन जाओ और ईसाई बनकर हम तुमको अलग से एक राज्य दिला देंगे। तुम्हारा अपना राज्य होगा। एक-दो समझते हैं कि हमारा अपना राज्य होगा बड़ा बढ़िया होगा। तो ऐसे उनको लालच दी जा रही है। लेकिन आप कल्पना करो कि अगर यही सब चलता रहा तो देश के अंदर से कश्मीर चला जायेगा, पंजाब चला जायेगा, झारखण्ड चला जायेगा तो कहीं तमिलनाडू को नीचे से पृथक स्टेट बनाने की बात कर रहे हैं वो चला जायेगा। तो कही केरल के अंदर मुसलमान अपना मुस्लिमलैंड करके मल्लाहपुरम करके पूरा जिला बना लिया, उसको अलग करने की बात करते हैं वो चला जायेगा तो इधर ये असम का मणिपुर , मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा, अरुणांचल ये क्षेत्र चले जायेंगे तो बचेगा कौन सा हिंदुस्तान! और अगर पिछले ६०-70 साल के अंदर हिंदुस्तान का आधा हिस्सा पहले बँट गया और हमारे देखते देखते अगर ये हिस्सा भी बँट गया तो कहाँ तो हम रहेंगे कहाँ हमारा देश रहेगा। इसको हम सबको जानना चाहिए और इन परिस्थितियों को कैसे रोका जा सकता है इसका निदान केवल एक ही है कि हम इन सब के अंदर हिदुत्व का भाव प्रबल करें। जब हिन्दू समाज का उनके अंदर हिन्दू होने का भाव प्रकट होता है तो उनके मन में देश के साथ जुड़ने की बात आती है। जब उनको लगता है हम सिक्ख हैं हमको अलग खालिस्तान चाहिए हम मीजो है तो हमें मीजोलैंड चाहिए, हम नागा हैं तो हमको नागालैंड चाहिए लेकिन हम जब हिन्दू हैं तो हमें सारा हिंदुस्तान चाहिए। हमारी गलती क्या है कि हम इस देश को अलग अलग टुकड़ों में बाँट कर देखते हैं। इस देश को अगर हम इतिहास के आधार पर, संस्कृति के आधार पर , अपने हिन्दू धर्म के आधार पर जोड़ कर देखें तो शायद ये देश, सबको इकठ्ठा किया जा सकता है। एक छोटी सी घटना सुनाकर अपनी बात पूरी करूँगा। हमारे देश के अंदर जब भारत स्वतंत्र हुआ तो ६०० से अधिक रियासतें थीं। तो ६०० रियासतों में से ये जो नागालैंड बगैरह ये तो छोटे छोटे कबीले जैसी बात थी। तो उस समय उन रियासतों को भारत में विलय किया जाये इसके लिए सरदार पटेल रूचि ले रहे थे। उन्होंने अपने बड़े कुछ विश्वास के लोगों को भेजा इस बात के लिए कि वो इनके जो राजा थे उनको समझाएं कि वो भारत में मिल जाएँ। तो एक बहुत बड़े व्यक्ति जिनको पहला पहला भारत रत्न मिला था, क्या नाम था उनका भई जिनको भारत का पहला भारत रत्न मिला ? महात्मा भगवानदीन, पहले भारतरत्न थे। उनके पुत्र थे श्री श्रीप्रकाश जी, बाद में गवर्नर भी रहे। इनको अपने विशेष दूत के सहारे नगर क्षेत्रों के अंदर सरदार पटेल ने भेजा बात करने के लिए। उनके जो संस्मरण छपे हैं, पोलिटिकल डायरीज जो छपी हैं उन्होंने विलय के लिए क्या क्या तैयार किया था उसके बारे में उन्होंने लिखा था। तो उन्होंने कहा कि मैं की ओर से एक सन्देश लेकर वहां गया कि ऐसे ऐसे भारत स्वतंत्र हो गया है, संधियां जो अंग्रेजो के साथ आपकी हुईं थीं वो समाप्त हो गयीं अब हम चाहते हैं कि आप अपने राज्य को भारत में विलय कर लें। उन्होंने कहा कि वो तो कबीला था, जंगली जातियोंमें वो रहते हैं उनका दरबार लगा उसमे पत्र पेश किया गया। राजदूत के नाते इन्होने वहां जाकर उनसे कहा कि मैं साहब दिल्ली के दरबार से यहाँ भेजा गया हूँ और ये चिट्ठी लाया हूँ। उन्होंने अपने मंत्री से पढ़वाया। द्विभाषियों ने उसको अंतर करके, उसका अर्थ करके बताया। राजा ने कहा कि अच्छा इसका जबाब चाहते हो तुम, तुमको मेरे साथ चलना पड़ेगा। और राजा ने ये जो श्रीप्रकाश जी जो भारत सरकार के दूत के नाते गए थे उनको अपने साथ गाड़ी में बैठा लिया और उनसे कहा कि तुम मेरे साथ चलो। इन्होने लिखा अपनी डायरी में कि मुझे बड़ा डर लग रहा था कि मेरे साथ क्या होगा। लेकिन जाना था मजबूरी थी जब राजा बोल रहा है तो कैसे मना कर सकते हैं। एक साथ वहां से चलने लगे। चलते चलते जब ये चलने लगे कसबे के बाहर तो उन्होंने लिखा कि मुझे और डर लगने लगा कि मेरे साथ अब पता नहीं क्या व्यवहार किया जायेगा। लेकिन जब और आगे चले तो देखा कि बहुत बड़ा कब्रिस्तान बना हुआ है। उसमे निरीसारी कब्र बनी हुई हैं ईसाईयों की, उन पर क्रॉस लगे हुए थे। ईसाईयों की कब्र पर क्रॉस लगा होता है उनका पवित्र चिन्ह । बोले जब कब्रिस्तान के दरवाजे पर उन्होंने गाडी से उतार दिया तो मुझे लगा कि आज मेरी जान गयी। और उसके बाद उन्होंने मुझे अंदर ले जाकर कहा ये देख रहे हो जो मीलों तक कब्रिस्तान बना हुआ है ये सब ईसाई, अंग्रेज लोग थे जो हमारी रियासत को अपने राज्य में मिलाने के लिए आये थे, हमने खून बनाया उनकी कब्रें यहाँ बानी हैं। हम अपने राज्य को किसी के अंदर मिलने नहीं देंगें। हम स्वतंत्र हैं और अपनी स्वतंत्र की रक्षा के लिए हमने खुद बलिदान दिए हैं। हम अपने राज्य को किसी राज्य में मिलायेंगें नहीं। और अगर तुम चाहते हो तो तुम भी अपनी फ़ौज ले आओ और तुम्हरे लिए मुकाबला करने को हमारे नौजवान माने हमारी सेना तैयार है। बात खत्म हो गई। विलय के लिए गए थे। चाहते थे कि ये सारे क्षेत्र जो हैं भारत में मिल जाये लेकिन उसका तो अंतर ही खत्म हो गया। चूँकि श्रीप्रकाश जी काफी विद्वान आदमी थे, काशी हिंदू विश्वविद्यालय के बहुत बड़े विद्वान थे। तो उसी समय उन्होंने कहा कि उसी समय मेरे दिमाग में आया कि इसका क्या जबाब दूँ मेरे पास तो कोई जबाब ही नहीं है। मेरा जो कूटनीतिक दायित्व था वो तो समाप्त ही हो गया। उन्होंने कहा कि मैं इस विषय में एक बात आपसे मैं निवेदन कर रहा हूँ कि ये तो ठीक है कि आपकी रियासत स्वतंत्र है। लेकिन मैं इन्द्रप्रस्थ से आया हूँ (तुम लोग जानते हो न दिल्ली का पुराना नाम इंद्रप्रस्थ था ) उन्होंने कहा इंद्रप्रस्थ से आये हो बोले हां। और बोले कि जैसे पूरे इंद्रप्रस्थ में तो हमारी रिश्तेदारियां थीं पहले, तो कैसे रिश्तेदारियां थीं कि अर्जुन जो थे, महाभारत वाले अर्जुन वो जब गए थे वनवास के समय में तो उन्होंने उस राज्य की राजकुमारी से विवाह किया था। और जब युधिष्ठिर ने राजस्वी यज्ञ किया था तो वहां की सेनाएं भेंट लेकर आयीं थीं क्योकि अर्जुन के साथ उनकी रिश्तेदारी थीं। तो इंद्रप्रस्थ में तो पहले भी आप भेंट लेकर जा चुके हैं और वैसा ही राजस्वी यज्ञ फिर से होने वाला है सभी रियासतें यहाँ पर इकट्ठा होने वाली हैं तो उन्होंने ने कहा कि अच्छा अच्छा आप उसी इंद्रप्रस्थ से आये हो तो ठीक है ठीक है जो इस चिट्ठी में लिखा है सब हमको स्वीकार है बताओ कहाँ दस्तखत करने हैं। विलय कहाँ पर हुआ जब हमने अपना सांस्कृतिक आधार रखा। अर्जुन के संबंधों के कारण ५००० साल पहले वो हमारे देश का हिस्सा था। हमने ये भाव जगाया कि हमारे तुम्हारे पुरखे एक थे, हमारी तुम्हारी रिश्तेदारियां एक थीं। उन्होंने कहा कि हम आएंगे। तुम्हारा दरबार, इंद्रप्रस्थ का दरबार होगा तो उसमे हम भी आएंगे। हमने स्वीकार कर लिया है, हमारे रिश्तेदारों के साथ हमारी क्या लड़ाई है। लेकिन आप कहते हैं कि आप दिल्ली के राजा हैं और हम आपका राज्य मिलाना चाहते हैं तो युद्ध के लिए आप आ जाइये। अगर इस देश को फिर से एक रखना है तो क्या करना पड़ेगा इस देश को एक रखने के लिए, इस देश के अंदर हिंदुत्व का भाव जगाना पड़ेगा। हिन्दू समाज को प्रभावी और संगठित बनाना पड़ेगा। संघ यही काम कर रहा है। संघ के द्वारा हिन्दू समाज का जागरण करना, हिन्दू समाज का संगठन करना है। जब हिन्दू शक्तिशाली होगा तभी कश्मीर के हिन्दुओं के प्राण बचेंगे। जब हिन्दू शक्तिशाली होगा तभी खालिस्तान बनने से रोका जा सकता है। जब हिन्दू संगठित होगा तभी ये झारखण्ड, मिजोरम, नागालैंड ये सबको को बचाया जा सकता है। इसलिए हम सब लोगों ने यही कहा था संघ के स्वमसेवक के नाते अपने देश की इन परिस्थितियों के बारे में विचार करते हुए इस निर्णय पर पहुंचते हैं हम सब लोग कि ये देश हमारा है। इस देश की सब समस्याओं को हल हमने करना है। और हमने करना है माने हम अपने संघ के कार्य का और अधिक विस्तार करके हिन्दू संगठन का काम फैलाएंगे तभी इन समस्याओं का जबाब होने वाला है नहीं तो जो काम आज कश्मीर में हो रहा है हो सकता है कल वो हमारे प्रदेश के अंदर भी आ जाये। अगर इन परिस्थितियों से अपने और अपने परिवार को, अपने समाज को, अपने देश धर्म को बचाना है तो हम सब लोगों ने और अधिक मेहनत से अपने अपने क्षेत्रों में संघ का काम प्राथमिक तौर पर खड़ा करना पड़ेगा।
पत्रिका संपादन
किसी घटना का उस महीने से संबंध जोड़ा जा सकता है क्या, लेकिन वो सामग्री अगर हमारा कॉलम कहे तो हम उस सामग्री की खोज करेंगे और अगर हमारा कॉलम निश्चित नहीं है तो फिर न मिला तो न सही, मिला तो तीन छाप देंगे नहीं मिला तो एक भी नहीं छापेंगे। तो एक बात क्या हमने अपनी पत्रिका के स्तम्भ तय कर रखे हैं, कौन कौन से स्तम्भ होंगे और उन स्तम्भों के लिए कितनी कितनी स्थाई जगह हमारे पास है। हम चौबीस पेज की पत्रिका छापते होंगे, साठ पेज की छापते होंगे, बारह पेज की छापते होंगे लेकिन उसमे एक पन्ना यह विचार के पक्ष का होगा यह एक पन्ना जो हमारे प्रान्त के अंदर वनवासी कल्याण आश्रम की गतिविधि है उसका होगा। एक पन्ना कहीं हमारे केंद्रीय अधिकारियों का दौरा हो रहा होगा, उसका होगा । अखिल भारतीय अध्यक्ष गए अखिल भारतीय मंत्री गए, संगठन मंत्री गए उन्होंने कुछ बोला होगा उसके आधार पर होगा एक पन्ना संघ परिवार के 25 संगठनों में से इस बार हम विश्व हिंदू परिषद का राम मंदिर का विषय छापेंगे अगली बार हम विद्यार्थी परिषद का शिक्षा पर सुधार का छापेंगे तीसरी बार हम अपने किसी और परिवार संगठन या विचार संगठन का बताएंगे या किसी क्षेत्र विशेष के विस्थापन की समस्या है भूकंप की समस्या है बाढ़ की समस्या है तो वह समस्याएं छापेंगे तो क्या उसे कॉलम कहे क्या निश्चित अगर स्तंभ रहेंगे तो हमको सामग्री का चयन करने में विविधता भी रहेगी और उसके अनुसार हमको यह ध्यान भी आएगा कि हमारा किस किस वर्ग में पाठक होना चाहिए उस को ध्यान में रखकर हम सामग्री का चयन करते हैं क्योंकि संपादकीय टोली हमारे पास कैसी है, मेरा निवेदन है कि आप सब संपादक या उस स्तर के लोग बैठे हैं क्या हमने कोई संपादकीय टोली विकसित की है आप बहुत गुणवान क्षमता वान होंगे या हो सकता है आप दुनिया के सर्वश्रेष्ठ संपादक हो या बनने की पात्रता रखते हो तो भी संगठन की रीति नीति यह नहीं है कि किसी काम के लिए प्रभावी व्यक्ति अकेला ही उसे चलाएं हम उसके लिए दो चार पांच लोगों की कोई टोली विकसित किए हैं क्या संपादकीय के लिए हो सकता है हमसे बड़े होंगे हो सकता है हमारे बराबर के होंगे हो सकता है हमारे सहयोगी होंगे लेकिन ५-४ लोग मिलकर किसी भी अंक के लिए संपूर्ण सामग्री का चयन करते हैं। और धीरे-धीरे वो टोली विचार के स्तर पर व्यवहार के स्तर पर अनुभव प्राप्त करके इस लायक होती है कि किसी कारण अगर मैं 2 अंक तक अनुपस्थित रहा बीमार हो गया बाहर चला गया कोई दूसरी योजना मेरे जिम्मे लग गई तो भी मेरी पत्रिका प्रभावित नहीं होगी 5 नहीं तो 4 लोग मिलकर तय कर लेंगे। मैं अकेला अगर किसी कारण से व्यस्त हूं या अस्त व्यस्त हूं तो क्या टोली है और अगर नहीं है तो होनी चाहिए मेरा निवेदन है मेरा अनुरोध है कि अकेला व्यक्ति कितना भी अच्छा हो उसके द्वारा काम होता रहे यह संगठन की रीति नीति नहीं है और अगर लेकिन यह तो ली है तो इस टोली में फिर काम का बंटवारा हो हो जाए कि भाई एक अच्छा अंक कोई सुभाषित देना है कोई कविता देनी है कोई लोकगीत देना है कि ये हमारी टोली की फलाने जी करेंगे। कोई अच्छी एक कहानी ढूंढ कर लानी है तो तो इसमें से ये करेंगे अगर हमने 10 कॉलम छठे हुए हैं और 4 कार्यकर्ता कार्य करते हैं तो 4 कार्यकर्ता सामूहिक मिलकर चयन करते हैं तो यह उनकी जिम्मेदारी पर बंटवारा होना चाहिए वह कोई सलाहकार ना रहे एडवाइजरी बोर्ड नहीं है वह एक दूसरे के लिए सहयोगी हैं हम प्रमुख हैं हम अधिक जिम्मेदार हैं जानकार हैं तो हम इस बात की चिंता करें कि उनको सामग्री चयन करके बता दे कि भैया अगली बार जब हम बैठक में बैठेंगे तो इस कविता पर विचार कर लेना और कोई विकल्प ना आए तो यह कविता मैंने छपी हुई है तो यह सब अपनी ओर से उनको प्रोत्साहित करना, सामने लाना लेकिन ऐसे 4, 6, 5, 7, 10 लोगों की संपादकीय टोली विकसित करना और उस संपादकीय टोली को नीतिगत विषयों पर, सैद्धांतिक विषयों पर भी चयन करने का विश्वास आदत डालनी और इसमें जैसे मैंने कहा स्तंभों का चयन करना वैसे ही इसका अनुपात भी तय करना कि इस स्तंभ को कितनी जगह देना जैसे संपादकीय बहुत अच्छा लिख दिया हमने 20 पेज की पत्रिका में 4 पेज का संपादकीय लिख दिया। संपादकीय के लिए एक पन्ना तय किया है तो एक ही पन्ना मैं कितना अच्छा लिख सकता हूं उसकी कोशिश करूं मैंने तय किया है कि महापुरुष की जयंती पर सुभाषित कविता के लिए स्कॉलर की खबर देनी है तो सिर्फ एक कॉलम में ही कैसे आए कभी कोई अपवाद हो जाए तो ठीक है लेकिन हर बार ऐसा होगा तो पत्रिका का स्वरूप नहीं बन सकता। तो कैसे इसको विकसित करना कि अपनी टोली को अपनी टोली के चार लोग समिति चयन करते हैं चार लोग मिलकर सामग्री का सलेक्शन करते हैं चारों लोगों के बीच में चर्चा होती है उनके ज्ञान का बंटवारा है और धीरे-धीरे उसमें से यह भी ध्यान में रहना चाहिए कि हम जिन चीजों को अपना विषय मानते हैं वो उसमें स्पष्ट होते हैं कि नहीं होते हैं । मैं सभी जगह की पत्र पत्रिकाओं से परिचित हूं अलग-अलग प्रांतों में जाकर पत्रिका छाप रही है अलग-अलग प्रांतों में पत्रक छप रही है पहली खबर संचालन सरसंघचालक जी का प्रवास दूसरी खबर अखिल भारतीय समाचार तीसरा को न्यूयॉर्क में क्या हुआ लंदन में क्या हुआ पूरी पत्रिका में जिस प्रांत विशेष के लिए वह पत्रिका छप रही है उसकी कोई खबर ही नहीं है ऐसा नहीं होना चाहिए। हो सकता है न्यूयॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड टावर जितनी महत्वपूर्ण घटना हो गई हो तो भी पत्रिका हम न्यूयोर्क से नहीं छाप रहे, पत्रिका हम रांची से छाप रहे है जाजपुर से छाप रहे हैं, जाजपुर के आस पास की खबर नहीं है रांची के आस पास की खबर नहीं है फिर तो पत्रिका को यहाँ छापने का क्या अर्थ है फिर तो दिल्ली का, न्यूयॉर्क का अखबार छाप ही लेगा। तो उसके लिए हो सकता है इस बार थोड़ी कटौती करनी पड़े लेकिन हम उसके क्षेत्र के लिए समाचारों का एक अनुपात तय कर लेंगे। बीस पेज की पत्रिका है, २४ पेज की पत्रिका है तो दो पेज राष्ट्रीय होंगे, दो पेज अंतर्राष्ट्रीय होंगे, चार पेज हमारे स्थानीय होंगे, तीन पेज हमारे विचारधारा पद के लिए होंगे, दो-तीन पेज छुटपुट समाचारों के लिए होंगे, कुछ पेज हमे देने पड़ेंगे, बच्चो के लिए, महिलाओं के लिए, एक पेज मनोरंजन का देना है, एक पेज चुटकुला का देना है, कार्टून देना है ,कविता देनी है, जो भी देना है हमारे पास एक लिस्ट होनी चाहिए । दूसरी चीज सामग्री का चयन करते समय एक और हमारे सामने समस्या रहती है हम सामग्री किनके लिए चयन करते हैं। सामग्री चयन करता है एडिटोरियल बोर्ड। मैं बहुत विद्वान हूँ मेरी जानकारी का स्तर बहुत अच्छा है इसलिए मैं बहुत अच्छी क्लिष्ट भाषा में बहुत अच्छा एक लम्बा लेख लिख सकता हूँ बनवासी समस्या का मैं बहुत बड़ा जानकार हूँ लेकिन भैया लिख तो आप सकते हैं पर पढ़ेगा कौन ? पढ़ता तो वो बनवासी है या वो छात्रावास में रहने वाला आठवीं कक्षा का विद्यार्थी है। हमारा टारगेट ग्रुप कौन सा है, टारगेट ग्रुप को हमारी बात समझ में आ सकेगी कि नहीं, इसको ध्यान रखकर मैं भाषा, शैली, विषयवस्तु का चयन करता हूँ कि नहीं करता हूँ, ये एडिटोरियल टोली की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। एक तो बहुत बढ़िया भाषा आपने लिखी लेकिन उसके विचारे के मतलब की नहीं। अब अखबार, हम कार्यालय से कहते है, हो सकता है तुम अपने विषय के विशेषज्ञ हो, अपने विषय के मर्मज्ञ हो पर अखबार पढ़ता कौन है? अखबार पढ़ता है रिक्शेवाला, अखबार पढ़ता है रेलवे स्टेशन पर रेल का इंतज़ार करने वाला, चाय की दूकान पर बैठकर चाय, समोसा के साथ वो एक अखबार भी रख लेता है, उसके पन्ने पलटता रहता है, उस समय आप कितनी गरिष्ठ और क्लिष्ट भाषा लिखे, कितना भी लम्बा आप समाचार लिखें , उसको उधर ध्यान है कि बस भी आने वाली है मेरी, उसको चाय वाले के पैसे भी देने है और उसे अखबार पढ़कर आपकी खबर भी समझनी है। तो स्थानीय अखबारों को अपनी भाषा का, हमारा जो टारगेट ग्रुप है वो ध्यान रखना चाहिए जैसे गाँधी जी का वाकया प्रयोग करते है न हम कि कोई भी काम करें तो उस चेहरे का ध्यान करें जिसको हमने सबसे गरीब, दिन-हिन जिसको जीवन में देखा हो उसको ध्यान करके हम ये सोचें कि मेरे इस काम का उसके ऊपर क्या असर पड़ेगा, गाँधी जी का ये बड़ा प्रसिद्द वाक्य है। ऐसे ही जब मैं लिखता हूँ, सामग्री का चयन, संकलन करता हूँ तो सबसे कमजोर उस दीन-हीन बन्धु को ध्यान करें, जिसके लिए आप पत्रिका छाप रहे हैं। आपकी रिसर्च मैगजीन है, हो सकता है, उसका विषय वास्तु उन रीसर्च स्कॉलर्स को ध्यान में रखकर सलेक्शन होगा, आप विद्यार्थियों के लिए छाप रहे है, महिलाओं के लिए छाप रहे है, वनवासी के लिए छाप रहे हैं, गिरीवासी के लिए छाप रहे हैं, डोनर्स के लिए छाप रहे हैं, किसके लिए छाप रहे हैं, उसके अनुकूल विषय वस्तु, सामग्री, भाषा, शीर्षक ये सब उसके अनुरूप चाहिए। बाकि भी चीजे अपने ध्यान में आती होंगी तो एक तो किस प्रकार की सामग्री का चयन, सामग्री की विविधता और दूसरी चीज हमारी पत्रिका कितने अंतराल पर छपती है। दैनिक समाचार पत्र जिस ढंग से समाचार देता है, साप्ताहिक पत्र को उस ढंग से नहीं देना होता। दैनिक समाचार पत्र कल मायावती ने रैली में भाषण दिया आज उन्होंने रिपोर्ट कर दी लेकिन पाञ्चजन्य उसे छापेगा तो उसे उस पर समीक्षा छापनी पड़ेगी क्योकि उसके सारे पाठक अगला अंक आने तक पाञ्चजन्य का ये समाचार जो मायावती का छपा है टाइम्स ऑफ़ इंडिया में, हिन्दुस्तान टाइम्स में, यहाँ के जो दस अखबार निकलते हैं उन सबमे वो पढ़ चुके हैं अब वो उस पर टिप्पणी चाहते हैं। इसलिए साप्ताहिक पत्र की भूमिका टिप्पणी की है। मासिक पत्र उसकी कुछ और भूमिका है क्योकि वो एक महीने के अंतराल पर आने वाला है। मासिक पत्रिका पाठक चाहता है कि पिछले महीने भर का एक प्रकार से उसके सामने रिव्यु हो जाये कि महीने भर में क्या हुआ, तीन महीने का है, दो महीने का है, छह महीने का है, हमारी पत्रिका कितने अंतराल पर छपती है उतने अंतराल की सामग्री हमने सिलेक्शन की कि नहीं की। हम छापते हैं तीन महीने में, और सारी सामग्री हमने इसी हफ्ते की दे डाली, पिछले ढाई महीने के बाद हमारा पाठक कुछ अपेक्षा करता है कि पिछले अंक से लेकर इस अंक तक के बीच की सामग्री का चयन इन्होने किया होगा। और अगर वो संकलन करके रखता है तो उसको ध्यान में आये कि साहब जनवरी से मार्च तक का एक अंक और अप्रैल से लेकर जून तक का दूसरा अंक अगर दस साल बाद भी कोई निकालकर देखना चाहे कि जनवरी से मार्च के बीच में कौन कौन से महत्वपूर्ण कार्यक्रम हुए थे वनवासी कल्याण आश्रम के तो उसको संकलन में मिलने चाहिए। तो सामग्री कितने अंतराल को ध्यान में रखकर करना। हम जिस हफ्ते में संकलन कर रहे हैं, जिस दिन हम सलेक्शन कर रहे हैं वो तो हमारे लिए महत्व का है ही लेकिन ये भी ध्यान में रखना लेकिन दूसरी बात और भी, मैं साप्ताहिक पत्र छापा या मासिक पत्र-पत्रिकाएं विचार करता हूँ साप्ताहिक पत्र या मासिक पत्र या पाक्षिक पत्र जैसा भी हम लोग छापते होंगे अलग अलग सबका एडिशन होगा वो कब छपता है और कब पाठक के हाथ में जाता है। मैं महीने की एक तारीख को अखबार छापता हूँ मेरी डिस्पैच डेट मान लो महीने की पहली तारीख है। मेरा पाठक प्रान्त के कौने कौने में फैला हुआ है ग्रामीण क्षेत्र में, वनवासी क्षेत्र में, जहाँ डाक स्पीड पोस्ट से सामान्य कूरियर से नहीं जाती, वहां सामान्य गति से सात दिन बाद, दस दिन बाद, आठ दिन बाद, पन्द्रह दिन बाद पहुँचती है। वो जो सामग्री मैं उसको भेज रहा हूँ वो पंद्रह दिन बाद भेज रहा हूँ उसके लिए उपयोगी है या नहीं। मैंने सामग्री का चयन करते समय पाठक के हाथ में जब डाक जाएगी तब कौन सी सामग्री है। मैंने आज सामग्री लिखी बैसाखी के ऊपर क्योकि आज बैसाखी है, अम्बेडकर जयंती है, महावीर जयंती है। मैं आज सामग्री का चयन कर रहा हूँ, मैंने महावीर जयंती पर एक लेख लिखा। अब ये महावीर जयंती का ये लेख मैंने आज लिखा, कल टाइप होगा, परसों प्रूफ पढ़ा जायेगा, तीसरे दिन छपने के लिए जाएगा, सातवें दिन वो छपकर आएगा, पन्द्रहवें दिन वो पाठक के हाथ में पहुंचेगा। तो इस अंक में मुझे बैसाखी या महावीर जयंती देनी है या नहीं देनी। अगर देनी है तो पंद्रह दिन पहले वाले अंक में देनी थी । इसलिए सामग्री का चयन करिये जब पाठक के हाथ में अंक जाने वाला हो उसके हिसाब को ध्यान में रखकर। हम कब ध्यान में रखते हैं जब हम सामग्री का चयन कर रहे हैं इसलिए अच्छे संपादक को आगे का ध्यान में रखना पड़ता है। दीपावली अंक निकालना है तो अगस्त से शुरू हो जाती है उसकी तैयारी। अगर आप अक्टूबर में दीपावली अंक की सामग्री चयनित करेंगे तो दीपावली तक घर में नहीं पहुंचेगा वो पत्र। तो इसलिए कब सामग्री चयन करना एक बात, दूसरी सावधानी उसी के विषय में है कि उसके लिए मिनिमम duration चाहिए हमारे पास सामग्री के लिए। कई बार क्या होता है कि हमारी पत्रिका की सामग्री चयन करने का दिन और उसको कम्प्यूटर होने भेजने का दिन, उसको प्रेस में, प्रिंटिंग प्रेस में भेजने का दिन, फिर उसको बाइंडिंग और डिस्पैच होने का दिन, इसमें कितने दिन का duration लगता है, कभी इसको कैलकुलेट किया क्या ? अगर हमारा अखबार १ तारिख को डिस्पैच होना है तो कब छप जाना चाहिए। कम से कम २९ को, २८ को छपेगा, फिर उसपे टिकट लगेगा, रेपर लगेगा, पता चिपकेगा, एक दिन मान लो इस काम में लगता है तो उससे कितने दिन पहले छपाई में लगते हैं। मान लो प्रिंटिंग प्रेस वाला दो दिन लगाता है, तो उससे पहले कंप्यूटर वाला कितने दिन लगाता है, अगर कंप्यूटर वाला चार दिन लगाता है मान लो प्रूफ पढ़ने में, तो उससे पहले सामग्री कब इकट्ठी होनी चाहिए। सामग्री साहब वो २० तारीख को या २२ तारिख को इकट्ठी होनी चाहिए। अब वो २०-२२ तारिख को सामग्री इकट्ठी होगी और पाठक के हाथ में कब पहुंचने वाली है, कम से कम ७ तारिख को, १० तारिख को। हमारी सामग्री कितनी बासी होती है, इसका अनुमान करना है एक बात उसके हिसाब से चयन करना है। दूसरी बात इस अंतराल को कैसे कम किया जा सकता है। ये जो १० दिन हमारी पत्रिका छपने में लगते हैं ये ५ दिन में सकती है क्या। कंप्यूटर का प्रूफ पढ़ने का काम ४ दिन के वजाय १ दिन में, २ दिन में कर सकते हैं क्या। आखिर दैनिक अखबार नहीं छपता है क्या। प्रिंटिंग प्रेस वाला हमे कितनी जल्दी दे सकता है , बाइंडिंग वाला कितनी जल्दी दे सकता है, टिकट लगाने की, पते चिपकाने की व्यवस्था हमारी कितनी जल्दी हो सकती है। इतने बड़े सर्कुलेशन वाली हमारी पत्रिका नहीं है कि हमको पते चिपकाने में ३ दिन का समय चाहिए। इस टाइमिंग स्पेंड को कैसे कम से कम कर सको। कितनी आप अपने पाठकों को अच्छी, रुचिपूर्ण, ताज़ी जानकारी दे सकते हैं। अब अगर इस सप्ताह में मिलने वाली पत्रिका में कोई ये लिखे कि सद्दाम हुसैन पर हमले की अमेरिका तैयारी कर रहा है तो इस खबर का क्या अर्थ रह जायेगा मेरे पास आने के बाद। वहां लड़ाई होकर २० दिन गुजर भी गया काम। तो पत्रिका कौन सी जाना, हमको भी अपने कार्यक्रमों के बारे में, हमको राम नवमी के बारे में वातावरण बनाना है तो कब से बनाना पड़ेगा। तो ये अपने को इतना टाइम भी एडिटोरियल टीम के लिए एक आवश्यक चीज है। इसलिए इसके बारे में भी विचार करिये। और भी कई छोटी छोटी बातें। कुछ पत्र - पत्रिकाएं जो हमारी मेलिंग लिस्ट है उसमे हमको भेजते हैं। मैंने जैसे कहा आप एक दूसरे को सप्लीमेंट्री भेज सकते हैं। अपने कुछ विशेष अधिकारियों को भेजते होंगे। आप संवाद केंद्र से या जागरण पत्रिकाओं से ये अपेक्षा करते होंगे कि वो आपको अपना अंक भेजें तो कृपा करिये आप अपनी ओर से पहल करिये, उन्हें भेजिए तब न वो भेजेंगें। उन्हें ये लगेगा न हां कुछ छपता है। उनको जरा आप अंडरलाइन करके भेजिए कि आपका भेजा हुआ जो लेख था वो हमने पन्ना तीन पर छाप दिया, आप देखिये जरा कि कैसा है। तो उनको भी अगर क्रेडिट लाइन दे दी तो उनको भी मज़ा आएगा कि विश्व संवाद केंद्र या फ़लानी पत्रिका से साभार मिला तो उनकी भी रूचि जगाने के लिए उनकी थोड़ी सी चिंता करनी। लेकिन जो मेलिंग लिस्ट है उसमे और कौन कौन से नाम हो सकते हैं, अपने अधिकारीयों को भेजते होंगे, अन्य प्रांतों में भेजते होंगे। हमारे प्रान्त से अन्य प्रांतों में हमने अपने कार्यकर्ता भेजे है तो कोशिश करिये कोई भी आदमी मेलिंग लिस्ट में १०-५ ही होंगे ज्यादा नहीं होंगे लेकिन वो भी भेजे जा सकते हैं क्या। हमारे प्रान्त का कोई कार्यकर्ता हमारे काम में कल तक, आज वो चला गया किसी दूसरे क्षेत्र में काम कर रहा है, उससे भी जीवंत संपर्क रखने का इस छोटे बुलेटिन से अच्छा और कोई माध्यम नहीं है हमारे पास हम लोग भेजते है, आग्रह करते हैं। संघ की टीम में हमारे प्रान्त से उत्तर प्रदेश के सब प्रांतों में प्रचारक गए हुए हैं। हम कोशिश करते हैं कि यहाँ से छपने वाली हर पत्र-पत्रिका उन प्रचारकों को जरूर मिल जाए क्योकि वो अपने क्षेत्र से दूर रह गए हैं, यहाँ के समाचार जानना चाहते हैं तो उनके साथ भी निकटता बनाये रखने के लिए, कल मैंने चर्चा भी की थी कि वेटिकन इस बात की व्यवस्था करता है कि दुनिया भर में फैले हुए उनके कार्यकताओं का जिस दिन उनका जन्मदिन है या कोई ऐसा विशेष दिन है उस दिन उनको आशीर्वाद और शुभकामनायें उसे घर बैठे मिल जाये। जिस कार्यक्षेत्र में मिले, हम और कुछ नहीं तो अपनी बना सकते हैं क्या , कितना बनाना, कितना करना, ये अपना बजट और अपनी तत्परता और अपनी आवश्यकता इसका आप लोग खुद आंकलन करिये। लेकिन कुछ ऐसी प्रतियां हैं जिसका भेजना अनिवार्य है इसका संकेत क्या है जैसे रजिस्ट्रार न्यूज़ पेपर को अपनी प्रति जानी चाहिए क्योकि हमारा प्रिंटिंग पेटा है। कलेक्टर के यहाँ, मजिस्ट्रेट के जहाँ नोटिफिकेशन के लिए एफिडेविट दिया होगा, उसके यहाँ हमारी प्रति जानी चाहिए। अपने प्रान्त का जो सुचना निदेशालय है, उसमे अपनी प्रति जानी चाहिए। अपने क्षेत्र की कम से कम दो सार्वजानिक लाइब्रेरीज़ को अपनी प्रति जानी चाहिए। और कलकत्ता में राजा राम मोहन राय लाइब्रेरी को हमारी प्रति जानी चाहिए। ऐसी छह प्रतियां प्रत्येक रजिस्टर्ड पत्रिका को भेजनी ही चाहिए। ये सरकार के एक प्रकार से निर्देश हैं और ये पत्रिका भेजी गई इसका अपने पास कोई रिकॉर्ड भी रखना चाहिए। तो रजिस्टर्ड डाक से भेजने में बहुत पैसा लगता है लेकिन underpostal सर्टिफिकेट तो हम उनको भेज ही सकते हैं। एक रुपये का टिकट लगाकर वो मोहर लगा देगा। जिस पते पर भेजा हमने उसको संभाल कर रखना क्योकि कल को अगर कोई ये कहता है कि आपकी पत्रिका का नाम रद्द कर दिया गया या आपकी जो पत्रिका है छपती नहीं, आपकी पत्रिका को विज्ञापन नहीं मिलता, तो उस समय ये अपने लिए प्रमाण होगा। एक प्रकाशित होने वाली पत्रिका को कम से कम छह स्थानों पर अपनी प्रति भेजने की व्यवस्था करनी चाहिए। बाकी भी व्यवस्था आप करते ही होंगे जैसे मैंने कहा कि अपने रिलॅटिवों की सूची है उसको भी अपनी पत्रिका छपनी चाहिए। लेख उसका छपा नहीं भी हो तो भी तो भी उनको पत्रिका भेजनी चाहिए अगले अंक के लिए। फिर हमे उनसे संपर्क करने हैं। स्थान-स्थान पर भी सहयोगी होते होंगे जिनसे कभी हम विशेषांक के लिए विज्ञापन लेते होंगे उनको भी अपनी मेलिंग लिस्ट में जोड़ कर रखें तो इनसे अपने को उपयोगिता मिलेगी। एक तो हमे सारी की सारी प्रतियां अपने को भेजना फिर उन प्रतियों को संभाल कर रखना। तो अपनी प्रतियों की पांच प्रति कम से कम ये कहीं बाइंड करा के रखते जाइये। कल को कोई मुकदमा होता है, कोई समस्या होती है, आप ही को पिछले अंक खोजने पड़ते हैं कि क्या छाप दिया था पिछले साल हमने, उसकी व्यवस्था करना। बाकी भी जो बेस मटेरियल, जो कुछ हमको साहित्य मिलता है उसके आधार पर हम सामग्री, समाचार लिखते हैं उसको भी मूल रूप में संभल कर रखने की व्यवस्था करनी चाहिए। मेरा कहना ये इसलिए है कि धीरे धीरे जगह जगह पर ऐसे विवाद, मुक़दमे, नोटिस मिलने शुरू हो जाते हैं। आपने किसी का लेख छाप दिया तो आपके पास उसके लेख की मूल प्रति है कि नहीं। कल को आप ये कह सकें कि भई हमने तो फलाने का लेख छापा था उन्होंने ये लिखा है, हम उनको भी तो पूछ सकें। नहीं तो अगर कल को हम मूल प्रति नहीं दे सके तो ज़िम्मेदारी आपकी है। ऐसे ही आपने कोई समाचार बना दिया वो समाचार किसी को आपत्तिजनक लगा उसने आपके ख़िलाफ़ शिकायत कर दी, नोटिस भेज दिया तो आप क्या करेंगे। आपने वो समाचार किस अखबार से लिया, किस पत्र-पत्रिका से लिया, जहाँ से लिया उसको संभाल कर रखना, उसकी फाइल बना कर रखना ये आवश्यक है और वो फाइल अगले ४-६ महीने तक नष्ट मत करिये । क्योकि अगर ६ महीने बाद भी कोई नोटिस भेज दे तो उसके लिए आपको पैरोकारी करने जाना पड़ेगा मुकदमेबाजी करने के लिए और एक बात और भी कि ये सब जो फोटोग्राफ्स हैं इनके डॉक्यूमेंटेशन के बारे में तो बहुत कुछ जानकारी दी गई इन सबको संभाल कर रखना, ठीक से व्यवस्थित रखना, सुरक्षित रखना लेकिन थोड़ा बहुत ही सही क्यों न हो, अपनी पत्रिका का अकाउंट भी अलग से मेन्टेन करने की व्यवस्था बनाना। आपने बनाई भी होगी सभी पत्रिकाओं की। क्योकि ये समस्या आ सकती है कि आप जब अपना सर्कुलेशन की रिपोर्ट भेजेंगे मार्च महीने में। रजिस्ट्रार न्यूज़ पेपर को सर्कुलेशन की रिपोर्ट भेजनी पड़ती है हमारा २००० अंक छपता है, ५००० छपता है जो भी है। हमारी ५० की सदस्यता है, २० रुपये की है, १०० रुपये की है। आज तो सब ठीक चल रहा है लेकिन कल कोई इस बात के लिए विवाद खड़ा कर सकता है कि आपके पास सोर्स ऑफ़ इनकम क्या है या आपकी इतनी अधिक आमदनी है तो खर्च कहाँ करते हो। कुछ न कुछ चीजें जिनका हम खर्चा करते है जैसे कागज़ खरीदते होंगे, छपाई का पैसा देते होंगे, उसका तो बिल अपने को मिलता ही है। उतना बिल उसको मेन्टेन करना और जिस भी खाते में से उसको ट्रांसेक्शन करते होंगे उसको कही न कहीं अपने पास कागज में रखना। साल भर पत्रिका की बैलेंसशीट भी बनाना। लाभ हुआ, हानि हुआ, जो कुछ भी हो अपनी जो व्यवस्था का काम देखते हों उनसे ये समझ लेना कि उसको कैसे लिखा जाना है। लेकिन अकाउंट भी हमारे स्पष्ट हैं। हमे मालूम है कि हमने साल में १२ अंक छापे, १२००० रुपया खर्च किया हमने १२ अंक छापने में। इसमें हमको सदस्यता से ५००० रूपया मिला, हमको विज्ञापन से ८००० रुपया मिला, १००० रुपया हमारा सरप्लस हुआ या २००० रुपये का घाटा हुआ। कहीं न कहीं हमारे पास कागज में है या नहीं। दूसरे जो रजिस्ट्रार न्यूज़ पेपर से जो हमने RNI नंबर लिया होगा, पोस्टल रजिस्ट्रेशन का कागज लिया होगा ये सब कागज आपने संभाल कर रखे हैं या नहीं। इनका एक बार फॉर्म ४ छापना पड़ता है फरबरी के महीने के अंदर, वो अपनी वो अपनी पत्रिका में छाप दिया या नहीं। उसमे लिखना पड़ता है- मुद्रा, प्रकाशक, संपादक, मालिक कौन । किसी कारण से कोई बदलना पड़ता है तो वहीँ स्थानीय मेजिस्ट्रेट के यहाँ एफिडेविट देकर स्टाम्प पेपर पर बदल देना चाहिए। नहीं करते हैं तो क्या होता है, अभी मैं देख रहा था इसी महीने में, अभी एक पत्रिका मेरे हाथ में लगी उसके प्रकाशक हमारे श्री कृष्ण बाग जी, प्रान्त प्रचारक थे, उनका स्वर्गवास पिछले महीने हो गया वो अभी भी उसमे प्रकाशक के नाते छप रहे हैं, मैंने पूछा संपादक से तो उन्होंने कहा कि वो पहले से छप रहा है, हर अंक में जा रहा था, अभी तो वो स्वर्ग चले गए तो अब तो उनका पीछा छोडो, कोई दूसरा नाम तय कर लो लेकिन नहीं आता ध्यान में। तो इसके बारे में भी ठीक से हमारा कागज, पत्तर, सरकारी व्यवहार जो कुछ भी है उसको भी ठीक रखना। तो सामग्री का संकलन, सामग्री का चयन सम्पादकीय टोली, अपने डाक की सूची,समाचारों को कब के हिसाब से छापना, समाचारों के लिए, लेखकों के लिए विषय पहले से उनको अलॉट करना, उनसे लिखवाना। छपाई के और सामग्री संकलन के बीच में जितना जितना अंतराल कम से कम हो सके, उसको कम से कम करते हुए ठीक, अच्छे, उचित समाचार समय पर लोगों को मिलें इसकी व्यवस्था करना। डिस्पैचिंग की व्यवस्था में भी कई बार डाक से भेजने में हमारी पत्रिकाएं गड़बड़ होतीं हैं, गुम होतीं हैं इसके बारे में पता करना और फिर अपने पाठकों से अपनी पत्रिका के विषय में फीडबैक प्राप्त करने की व्यवस्था करना। हम छापे जा रहे हैं, बाँटे जा रहे हैं क्योकि मुफत की है कोई भी रखे जा रहा है। हमने कभी पूछा ही नहीं कि भैया तुमने मिलती है तो तुम खोलकर उसका प्रिंट पढ़ते भी हो या नहीं कभी। पढ़ते हो तो तुम्हे उसमे से कौन सी चीज अच्छी लगती है, क्या चीज ख़राब लगती है। हमने कभी पूछा क्या, साल भर में एक-आध बार परफॉर्मा ही भेज दीजिये। जो कुछ १००-५० लोग, कभी हम प्रवास पर जाते हैं तो ऐसे लोगों से मिल सकते है क्या। कहीं १०-२० पाठकों के साथ सम्मलेन कर सकते हैं क्या। किसी केंद्र पर एक्सपर्ट होते हैं पत्र-पत्रिकाओं में, उनको हम ओपिनियन के लिए भेज सकते हैं क्या कि हमारी पत्रिका के बारे में आप अपनी राय बताइये। लेकिन पत्रिका के विषय में फीडबैक ही नहीं है हम अपना करते चले जा रहे हैं "स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा" आप अपनी मर्जी से अपनी प्रसन्नता के लिए छाप रहे हैं, बाँट रहे है, बेच रहे हैं कोई खरीदता है कि नहीं, पढता है कि नहीं, कोई उसका उपयोग करता है कि नहीं, किसे बाँटता है, किसे पढ़ाता है हमें मालूम नहीं। तो क्यों बाँट रहे हो भई। उसके फीडबैक की व्यवस्था करना। इसके लिए भी कुछ न कुछ वर्ष में एक आध बार संपर्क करने की व्यवस्था। कोशिश करिये १०-२०-२५-५० लोगों से संपर्क सम्पादकीय टोली करे स्वम् जाकर या पत्र व्यवहार करके। व्यक्तिगत रूप से जाकर पूछे कि क्या तुम्हारी पत्रिका मिलती हैँ, समय से मिलती है, जो मिलती है उसमे आपको सब चीज अच्छी लगती है, कौन सी चीज अच्छी नहीं लगती, अच्छी नहीं लगती तो क्यों नहीं लगती, और कुछ नई चीज जोड़ी जाये तो क्या किया जाए। आखिर क्या उनकी कल्पना है। हम जिस पाठक के लिए छाप रहे हैं, आखिर में इस पुरे तंत्र का, सारी व्यवस्था का मालिक पाठक है। पूंजीवाद कहता है कि फैक्ट्री काहे के लिए चलाई जानी चाहिए मालिक के लाभ के लिए, समाजवाद कहता है कि फैक्ट्री किसके लिए चलानी चाहिए मजदूरों के लाभ के लिए। लेकिन बेचारा ग्राहक, जिसके लिए फैक्ट्री चलती है उससे भी पूछो। हमारा पाठक हमारा ग्राहक है चाहे मुफत में लेता है तो चाहे पैसे देकर लेता है तो। उसको क्या आवश्यकता है, क्या अपेक्षित है, क्या समझ में आता है, क्या नहीं समझ में आता, उससे कुछ बात करने की, फीडबैक लेने की व्यवस्था खड़ी करना। बाकी भी कुछ चीजों को हमे संकलित करते जाना चाहिए। जैसे मान लो रामनवमी पर कोई लेख हमारे ध्यान में आया, इस समय तो हमारा अंक निकल गया लेकिन अगले साल भी तो रामनवमी आएगी और हम नहीं होंगे तो हमारे जैसा कोई भाई-बंधु, संपादक होगा उसके सर पड़ेगा। हम उस पर कोई सामग्री इकट्ठी करके रखते गए क्या। हर अंक के लिए मासिक-त्रैमासिक-पाक्षिक जैसा आप छापते हों उसके हिसाब से क्या हम अँकवार फाइलिंग कर सकते हैं लेकिन अगले अंक के लिए, उससे अगले अंक के लिए, उससे अगले अंक के लिए हमने एक फाइल बना रखी है। जनवरी अंक की फाइल है, फरबरी अंक की। अभी अप्रैल के महीने में दिसंबर अंक के लिए अच्छी सामग्री दिखाई देती है तो डाल दो क्योंकि दिसंबर अंक के लिए जब हम ढूंढे तो हमे प्राप्त ही न हो। तो अपनी सब फाइल बनाना, मेन्टेन करना। ऐसे ही फोटोग्राफ्स भी एक बड़ी भारी समस्या है। आज फोटो जर्नलिज्म की चर्चा हुई, सुनील राय बहुत बड़े अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के फोटोग्राफर हैं, आपके बीच में आये, हमारे मित्र हैं उन्होंने उन पर कविता भी लिख डाली। लेकिन हमारे पास फोटो नहीं मिलती। और कैसी दुर्दशा होती है यहाँ लखनऊ में कोठारी बंधुओं की स्मृति पर एक पार्क बना दिया गया, उस पर यहाँ के कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों ने उसके खिलाफ आंदोलन किया। उन्होंने कहा कि आतंकवादियों के समर्थन में नगर निगम ने पार्क बनाया है, कल को पंजाब के आतंकवादी कहेगें कि यहाँ आतंकवादियों के स्मारक बनाये जाएँ तो वो भी बनाये जायेंगे। ये कंट्रोवर्सी विवाद चला। इंडियन एक्सप्रेस की बॉम्बे से एक टीम आयी, कोठारी बन्धुओं के ऊपर उस पार्क की कन्ट्रोवर्सी को कवर करने के लिए। उन्होंने उस पार्क के फोटो ले लिए, एक खम्भा सा खड़ा हुआ है स्मारक के नाम पर उनका कुछ नहीं है सिर्फ पार्क बना हुआ है। लेकिन उन्होंने कहा कि कोठरी बंधु थे कौन। तो मोहल्ले के आसपास के लोगों ने कहा कि जी हमे नहीं पता ये तो मेयर साहब जाने। मेयर साहब ने कहा कि हमे नहीं मालूम मोहल्ले के सभासद ने कहा था इसलिए हमने बनवा दिया। अब मोहल्ले के सभासद के पास गए तो उन्होंने कहा कि वहाँ अयोध्या में ऐसे ही बोल गए थे, बलिदानी लोग हैं। तो बोले कि उनका कोई जीवन परिचय, फोटो मिल जायेगा। तो उन्होंने कहा कि विश्व हिन्दू परिषद् कार्यालय में होगा। विश्व हिन्दू परिषद् कार्यालय ने कहा कि हम ऐसी चीजें नहीं रखते। अब वो इंडियन एक्सप्रेस की टीम सारे शहर में घूम आयी। कोठारी बंधुओं के नाम पर वोट मांगने से लेकर नोट मांगने तक के सारे काम हुए। उनके नाम पर यहाँ पर विवाद हुआ, अखबारों में खबर छपी लेकिन फोटो कोठारी बंधुओं की किसी के पास नहीं है। अरे भई आखिर हम खबर छपवाना चाहते हैं तो कोठारी बंधुओं की फोटो भी तो चाहिए। अब ये ठीक है कि जिस दिन वो हमारे पास मांगने आये उस दिन फोटो न मिले लेकिन कोठारी बंधुओं की फोटो कभी भी काम आ सकती है। अगर आज भी मिले तो रखी जा सकती है। अपने बहुत सारे अधिकारी हैं उनकी फोटो समय पर मिलती नहीं है, ढूढ़ते रहते हैं। आज मैं आश्चर्य बताता हूँ, मेरी भी उसमे जिम्मेदारी है, पूज्यनीय रज्जू भैया सरसंघचालक से निवृत्त हो रहे हैं ये बात कुछ लोगों को जानकारी में है। ये भी तय था कि ये एक बड़ी खबर है नए सरसंघचालक मनोनीत होने जा रहे हैं। दिल्ली की प्रेस को दिल्ली के कुछ हमारे ही लोगों ने ये क्लू दिया है कि आज एक बड़ी खबर आएगी और खबर रोक कर रखना। लोग समझ गए कि रज्जू भैया निवृत्त हो रहे हैं। खबर आने के साथ ही उन्होंने रज्जू भैया के कैमरा फोटो की तलाश की। और हमारे पत्रकार मित्रों ने हमको शिकायत की कि दिल्ली के झंडेवालान पर साफ़ मना कर दिया गया कि रज्जू भैया का कोई फोटो हमारे यहाँ नहीं है। अब अगर दिल्ली के संघ कार्यालय पर रज्जू भैया का फोटो नहीं है तो वो बेचारे कहाँ ढूढ़ने जाएँ। अब गड़बड़ ये हो गई कि सभी प्रमुख कार्यकर्ता सभा में मौजूद थे, वहां कोई जिम्मेदार व्यक्ति वहां मिला कि नहीं मिला। लेकिन रज्जू भैया का फोटो संघ कार्यालय में नहीं दिया जा सकता तो बताया जाना चाहिए कि यहाँ नहीं है फ़लाने के यहाँ उपलब्ध होगा या हम मंगा कर देते हैं, ये व्यवस्था होगी। तो क्या अपने पास अपने प्रमुख कार्यकर्ताओं के फोटोग्राफ्स है क्या। अभी हम लोगतलाश कर रहे थे परसों हमने श्रद्धांजलि दी, तो रामबाबू कोतवलीजी का फोटो नहीं है हमारे पास। अब उनके फोटो के साथ श्रद्धांजलि यहाँ से भी रिलीज होनी चाहिए थी कि अखिल भारतीय टोली ने उनको श्रद्धांजलि दी और अगले अंक में आप सबकी पत्र-पत्रिकाओं में श्रद्धांजलि फोटो और जीवन परिचय सहित आनी चाहिए। क्या उनका जीवन परिचय और फोटो हमारे पास थी? उनकी छोड़िये आज जो मौजूद हैं उनका भी नहीं मिलेगा। कल को किसी फोटो ढूँढोगे तो मिलेगी नहीं जल्दी से। कौन कहाँ है , कब, किसकी फोटो की आवश्यकता किस काऱण से पड़ती है। अरे हमको किसी का शुभकामना सन्देश ही छापना है। शुभकामना सन्देश मिल गया, फोटो साथ नहीं मिलती। तो क्या हमने फोटो की एल्बम वगैरह, उनके नेगेटिव संभाल कर रखने की कोई व्यवस्था, उनके जीवन परिचय की, बायोडाटा बनाकर रखने की व्यवस्था। तो प्रचारक हैं साहब, बहुत साल से, पचासों साल से संघ का काम कर रहे हैं, यानी कब से कर रहे हैं कुछ आपको ध्यान में है कि सन ४० में प्रचारक निकले, ६० में निकले कि अभी इसी साल निकले। हमे नहीं मालूम, किस विभाग से, कहाँ से प्रचारक निकले। ऐसा कोई बायोडाटा का, डॉक्यूमेंटेशन का विषय है वहां ऐसे डॉक्यूमेंटेशन इनका भी सबका चाहिए अपने को। कई बार किसी विशेष अधिकारी का भाषण होता है, उसका ऑडियो, वीडियो हम टेप कर लेते हैं उसको संभाल कर रखते हैं क्या, उसको कभी उपयोग भी करते हैँ क्या। हमने पत्रक छापा, हमने कॉपी संभाल कर भी रखी क्या। निरंतर पत्र छापे होंगे, अधिकारीयों के आने पर पत्र छापे होंगे। ये सब चीजें भी संभाल कर रखना। ये सब चीजें जो इतिहास बन रही है। सारी दुनिया आज संघ को समझने की कोशिश कर रही है। संघ के विचार को, हिंदुत्व को दुनिया समझने की कोशिश कर रही है। कल लोग आज जो कुछ आप लिख रहे हैं, छाप रहे हैं, कल उसके आधार पर दुनिया में शोध कार्य होंगे, लोग पुस्तकें लिखेंगे, उसको जरा ठीक ढंग से, जिम्मेदारी के साथ हम लोग उसको ठीक से डोक्युमेंटेट करें, ठीक से उसको प्रदर्शित करें, ठीक से उसकी जानकारी करें और छोटी सी अंतिम बात ये कि अपनी पत्रिका को हम स्वम् भी मूल्याङ्कन करें। अपनी सम्पादकीय टोली, व्यवस्था की टोली के साथ बैठकर मूल्याङ्कन करें। खूब हमने मेहनत करी, बहुत अच्छी सामग्री छांटी, बहुत अच्छा चित्र दिया, बहुत अच्छा मुखपृष्ठ दिया लेकिन और इसमें क्या अच्छा हो सकता था। किसी दूसरे से आलोचना होगी, सुझाव आएंगे अलग बात है लेकिन हमारी टोली ने हर अंक की बैठकर समीक्षा की या नहीं की। इससे अच्छी कोई सामग्री जा सकती थी, इस बार चूक गए, ये और देना चाहिए था हमे। हर संपादक को अपनी टोली के साथ स्वम् भी और अपनी टोली के साथ बैठकर हर अंक की समीक्षा स्वम् करनी चाहिए। स्वम् हम इस निष्कर्ष पर पहुचें कि अब इसके बाद और अगला कदम बढ़ाने के लिए ये चीज हमारे पास अगले अंक के लिए बच गयी।
गुरु (ध्वज) को नमन
हम सब बहुत भाग्यशाली हैं जो गुरु पूजन के निमित्त आये हैं और ये गुरुपूजन का सौभाग्य भी हमको परमेश्वर की इस कृपा से मिला कि हमारा जन्म पवित्र हिन्दू धर्म में, हिन्दुस्तान में हुआ। अन्यथा दुनिया की अनेकों सभ्यता और संस्कृतियां हैं उसमे कोई अक्षर ज्ञान कराने वाले टीचर हो सकते हैं, किसी किशेष प्रकार का कला कौशल सिखाने वाले उस्ताद होते हैं लेकिन इस लोक का परलोक का ज्ञान कराने वाले सभी प्रकार के श्रेष्ठ संस्कार देने वाले गुरु की कल्पना, गुरु का महत्व ये हमारे हिन्दू समाज ने ही समझा। और इसलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा भी है क़ी
“श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू”
हम बड़े भाग्यवान हैं कि गुरु के दर्शन-पूजन के लिए यहाँ एकत्र आये हैं। संघ के निर्माता परमपूज्यनीय डॉक्टर जी ने जब हिन्दू समाज के अंदर देशभक्ति जागरण का, हिन्दू समाज के संगठन का कार्य राष्ट्रीय स्वम् सेवक संघ के रूप में प्रारम्भ किया तो स्वाभाविक था सारे समाज के सामने जिसको आदर्श के रूप में उन्होंने रखा वो उनकी कोई नई खोज नहीं थी, हिन्दुस्तान की संस्कृति का जो परम्परागत प्रतीक था उस भगवा ध्वज को ही उन्होंने गुरु के स्थान पर हम सबको बताया क्योंकि हम सब जानते हैं कि व्यक्ति कितना भी श्रेष्ठ हो लेकिन व्यक्ति पूर्णता को प्राप्त करना उसके लिए बड़ा कठिन है। पूर्ण तो परमेश्वर ही होता है। व्यक्ति आज बहुत अच्छा होता है कल उसके अंदर पतन, कोई दुर्गुण भी हो सकते हैं। इसलिए व्यक्तियों के पीछे चलने वाला संस्था या समाज जब तक व्यक्ति सामने रहता है तब तक चलता है फिर वो भ्रमित हो जाता है। इसलिए व्यक्ति का आदर्श, व्यक्ति का गुरु तो कोई व्यक्ति हो सकता है लेकिन हिन्दू समाज जैसे सनातन, पुरातन समाज का नेतृत्व करना, उसको मार्गदर्शन करने के लिए तो कोई सनातन, पुरातन प्रतीक ही चाहिए था। और ऐसा प्रतीक जो हमारी त्यागमयी संस्कृति है यज्ञ की, उसका प्रतीक है, जो हमारे ऋषियों की परंपरा से हमको ज्ञान प्राप्त हुआ, उस ऋषि परम्परा का प्रतीक है, जो हमारे उन चक्रवर्ती सम्राटों का, अवतारी पुरुषों का प्रतीक है जिन्होंने विश्व में जाकर विजय प्राप्त की, उसका प्रतीक भगवा ध्वज है। उन महापुरुषों का जिन्होंने अपने जीवन का बलिदान देकर इस देश-धर्म की संस्कृति का विकास किया, रक्षा की उनका प्रतीक है। जिन्होंने आततायी अत्याचारियों के सामने अपने समाज का गौरव बचाने के लिए जौहर की ज्वाला में कूद गयीं ऐसी माताओं का प्रतीक है। हमारे ज्ञान विज्ञान, हमारे धर्म, इतिहास संस्कृति, हमारे भूगोल सबका एक मात्र प्रतीक जो शाश्वत, सनातन हमारे सामने, हमारे संस्कृति के रूप में खड़ा है ऐसे परम पवित्र भगवा ध्वज को ही डॉक्टर जी ने हिन्दू समाज के सामने प्रेरणा और आदर्श के रूप में रखा और हम सब लोग आज उसको गुरु के रूप में पूजन कर रहे हैं, प्रतिदिन अपनी शाखा पर हम लोग गुरु के रूप में उसको प्रणाम, पूजन, वंदन करते हैं। अब ये गुरु के रूप में प्रणाम, पूजन, वंदन करना उसके सामने नतमस्तक होना और गुरु के अंदर अपने गुणों को प्रस्थापित करना, उनसे गुण ग्रहण करना ये भी हिन्दू समाज की ही विशेषता है। और इस नाते से अपने इस परम पवित्र भगवा ध्वज को हम सब लोगों ने आज पूजन, वंदन किया। ये ध्वज हमारी परम्परागत संस्कृति का प्रतीक है। और राष्ट्रीय स्वमसेवक संघ के निर्माता डॉक्टर जी ने जो स्वम् एक बड़े देशभक्त, एक बड़े क्रांतिकारी थे जिन्होंने इस देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में सब प्रकार से सहभागिता की। देश के सबसे बड़े क्रान्तिकारी संगठन अनुशीलन समिति के सदस्य के रूप में उन्होंने देश के प्रमुख क्रांतिकारी, तत्कालीन क्रांतिकारियों के साथ काम किया। चाहे वो वीर सावरकर जी हो, चाहे वो त्रैलोकनाथ चक्रवर्ती हों, चाहे वो सुभाष चन्द्र बोस हों, लोकमान्य तिलक, भगत सिंह, राजगुरु इत्यादि सबके साथ उन्होंने क्रन्तिकारी दल में कार्य करते थे। क्रांतिकारियों में भी जो प्रथम श्रेणी के क्रांतिकारी थे, उनमें उनका स्थान था। लेकिन देश के अंदर मुट्ठीभर क्रांतिकारियों के प्रति लोगों की श्रद्धा तो थी, सम्मान तो था लेकिन इतने बड़े देश को जाग्रत करने के लिए, समाज के अंदर व्यापक आधार खड़ा करना चाहिए इसलिए सार्वजानिक मंचों पर जाकर भी डॉक्टर जी ने काम किया। हम सब जानते हैं कांग्रेस जो उस समय पर सार्वजानिक मंच था उसमें भी उन्होंने काम किया। कांग्रेस के अनेक सत्याग्रहों में वो जेल गए। १९२१ के सत्याग्रह में वो जेल गए। १९३० के सत्याग्रह में जेल गए और कांग्रेस में भी उनका वरिष्ठ स्थान था। कांग्रेस के उस समय के बड़े बड़े नेता चाहे वो महात्मा गाँधी हो, मोती लाल नेहरू हों, राजश्री टंडन हों, सरदार पटेल हों सब डॉक्टर जी के निकट के परिचित और सहयोगी थे।कांग्रेस में उनका कितना महत्वपूर्ण स्थान था, १९३० के सत्याग्रह में उनको ९ मास के कारावास के बाद वो जेल से छूटकर आये तो जेल के दरवाजे पर उनका स्वागत करने के लिए उस समय के कांग्रेस के अखिल भारतीय अध्यक्ष पंडित मोती लाल नेहरू, विट्ठल भाई पटेल, हक़ीम अज़मल खां सरीखे लोग भी जेल के दरवाजे पर उनका स्वागत करने के लिए उपस्थित थे। उन्होंने हिन्दू महासभा में भी काम किया।देश की स्वतंत्रता के लिए कभी संघर्ष की आवश्यकता होगी इसके लिए इस देश की तरुणाई को सैनिक प्रशिक्षण मिले इसके लिए सैनिक विद्यालय चलाये। समाज में वैचारिक जागरण के लिए समाचार पत्रों का संपादन और प्रकाशन का काम किया। सभी क्षेत्रों में काम करते हुए आज़ादी की लड़ाई में उनके मन में कुछ प्रश्न स्वाभाविक रूप से खड़े होते थे जो हर देशभक्त के मन में आते हैं। उन्होंने अपने देश के इतिहास का अध्ययन किया और उसमे से हम सब जानते है कि हमारा देश ये दुनिया का सबसे प्राचीन और महान देश दुनिया के सभ्यताओं और संस्कृतियों के उदय होने से लाखों लाखों वर्ष पहले से हम एक सुखी, समृद्ध, संपन्न, स्वाभिमानी राष्ट्र के रूप में दुनिया में खड़े थे। हमने सारी दुनिया को लिखना, पढ़ना, बोलना , खेती करना, कपडा पहनना, गणित, विज्ञान, ज्योतिष, चिकित्सा सब कुछ सिखाया। सारी दुनिया भारत माता का जगतगुरु कहकर सम्मान करती थी। ऐसे गौरवशाली, वैभवशाली देश के इतिहास की जब हम चर्चा करते हैं तो हमको मालूम है कि सारी दुनिया में एक कालखण्ड था जब भारत माता की जय-जयकार होती थी। लेकिन जब हमारी समृद्धि की चर्चाएँ दुनिया में चलीं तो एक काल ऐसा भी आया कि दुनिया के लुटेरे हमारे देश पर आक्रमण करने के लिए आये। कोई वो मिश्र की महारानी आयी थी वो पराजित होकर गयी। कोई सिकंदर यूनान से चल कर आया वो पराजित होकर गया। उसका सेनापति सेल्यूकस पराजित होकर गया। वो मध्य एशिया से चलकर हूण, शक आदि अनेक आततायी जातियाँ आयीं। वो सब यहाँ समाप्त हुई। उनकी संस्कृति सब यहाँ की मुख्य धारा में विलीन हो गई। आज इस देश में हूण, शक, यूनानियों के चिन्ह भी नहीं मिलते। इस राष्ट्र की मुख्य धारा में सबको समाहित कर लिया गया। ये वो कालखंड था जब हमारा समाज जाग्रत था, हमारे समाज में चन्द्रगुप्त और चाणक्य जैसे आदर्श थे, विक्रम और शालिवाहन जैसे आदर्श थे जिन्होंने इस समाज की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व समर्पण करा। ऐसे लोग खड़े हुए थे। आपस में युद्धृत, यशोधर्मा और थार्वेद हूणों के आक्रमण से देश को बचाने के लिए अपना आपसी बैर छोड़कर हूणों के विरूद्ध लड़ने के लिए एकजुट होकर एक साथ सेना लेकर गए। जब तक हमारे देश में भाव और भावना थी कि देश मेरा है, इसके लिए जीना-मरना है तब तक हमने विश्व की बड़ी से बड़ी आततायी-अत्याचारी शक्ति को पराजित-पराभूत करके इस देश से समाप्त कर दिया। ये देश की नियति है कि कोई भी अत्याचारी-आततायी-साम्राज्यवादी हर ताकत का कब्र इस भारत की धरती पर बनी है। और इसलिए हमने उन सब को पराजित किया। लेकिन देश के इतिहास का वो कालखंड भी हम सबको याद आता है जब मुट्ठीभर अत्याचारी-आक्रमणकारी जिनकी न बड़ी कोई सभ्यता थी, न संस्कृति थी, न बड़ी बहादुरी थी। वो इस देश पर आक्रमण करने आये और उन्होंने इस देश को अपमानित किया, पराजित किया, हमारे मंदिरों को तोड़ा गया, तीर्थों को नष्ट किया गया, माताओं-बहनों को अपमानित किया गया, गौ, ब्राह्मण को खत्म किया गया। हमे मालूम है कि शताब्दियाँ इसकी साक्षी हैं। बार-बार इस प्रकार के आक्रमण हमने झेले। इस आक्रमण के समय हिन्दू समाज बड़ा कायर था, लड़ना नहीं जानता था, बहादुर नहीं था ऐसा नहीं था। आक्रमणकारी बड़े योग्य थे, वीर थे, ऐसा भी नहीं था लेकिन आखिर ऐसा हुआ क्यों ? डॉक्टर जी ने इतिहास के अध्ययन में से निष्कर्ष निकाला इस देश की पराजय, पराभोर, पतन का कारण विदेशियों की योग्य या वीरता नहीं थी हमारे ही लोगों के अंदर जब स्वार्थ जग गए, मैं और मेरा परिवार, मैं और मेरा सम्मान, मैं अपनी सुख-सुविधा के लिए देश, धर्म और समाज की सुरक्षा भूल बैठा तो हमारे ही समाज के स्वार्थों के कारण हममें फूट पड़ी और उस फूट का लाभ शत्रुओं ने उठाया। इस देश पर अत्याचारी-आक्रमणकारी-मुस्लिम ताकत का दिल्ली पर शासन कब पंहुचा, इसलिए नहीं कि आक्रमणकारी बड़े बहादुर थे। हमको मालूम है कि पृथ्वीराज चौहान ने सोलह बार मोहम्मद गौरी को हराया लेकिन मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को हराने का अवसर कब मिला, जब हमारे ही देश का कोई जयचंद उनके साथ जाकर खड़ा हो गया। हम सब जानते हैं महाराणा प्रताप सरीखा योद्धा दुनिया के इतिहास में ऐसा नाम मुश्किल है महाराणा प्रताप को हल्दी घाटी का मैदान छोड़कर जाना पड़ा था। इसलिए नहीं कि अकबर बड़ा बहादुर था और महाराणा प्रताप कायर थे बल्कि इसलिए कि अकबर ने अपना सेनापति बनाकर मानसिंह को भेजा था। हिन्दू ने हिन्दू के खिलाफ तलवार चलाई। हमे सम्मान मिलेगा, कोई जागीर मिलेगी, मुगलिया दरबार में अपने को सुविधाएँ प्राप्त होंगी इसलिए हिन्दू हिन्दू के विरूद्ध लड़ने के लिए तैयार हो गया। छत्रपति शिवाजी महाराज कभी पराजित नहीं हुए थे लेकिन छत्रपति शिवाजी महाराज को भी एक बार आगरा जाना पड़ा था वहां वो बंदी बनाये गए थे जब औरंगजेब का सेनापति बनकर मिर्जा राजा जयसिंह आया था। हिन्दू-हिन्दू के खिलाफ लड़ा था। इस देश के पराजय और पतन का कारण विदेशियों की वीरता और योग्यता नहीं, हमारे समाज के स्वार्थ, हमारी आपस की फूट इस देश के पतन का कारण रही। और इसलिए डॉक्टर जी ने कहा कि अगर इस देश को फिर से ठीक खड़ा करना है तो इस समाज के अंदर अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर देशभक्ति के आधार पर खड़ा करना पड़ेगा। इस देश में राष्ट्रीयता की सही परिभाषा खड़ी करनी पड़ेगी। हमारा अपना कौन है पराया कौन है। देश का शत्रु कौन है मित्र कौन है ये भाव हम भूल गए। और इसलिए हम विदेशियों की, आक्रमणकारी-आक्रांताओं की चाकरी करने में हमारे देश के वीरों को अपना सम्मान, हमारे देश के विद्वानों को अपना सम्मान दिखाई देने लगा। इस देश में राष्ट्रीय कौन है, इस देश का निर्माण किसने किया है, इसकी रक्षा किसने की है जब तक ये पहचान नहीं होगी। हमारे देश का अपना कौन है, पराया कौन है, हमारा मित्र कौन है, हमारा शत्रु कौन है ये पहचान समाज करना नहीं सीखेगा और स्वार्थों से ऊपर देशभक्ति के आधार पर संगठित नहीं होगा तो इस समाज के भाग्य को बदला नहीं जा सकता। इसलिए डॉक्टर जी ने अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया। अनेक लोगों से, महापुरुषों से चर्चा की और उसमे से इस निष्कर्ष पर पहुचें कि इस देश का राष्ट्रीय समाज, हिन्दू समाज, जिसने इस राष्ट्र का निर्माण, जिसके पूर्वजों ने अपने खून पसीने से किया है, जिसकी रक्षा के लिए अनेक प्रकार के बलिदान किये, वो हिन्दू समाज जिसने इस देश की संस्कृति की रचना की है, वो हिन्दू समाज जब तक स्वार्थों से ऊपर उठकर, जाति-बिरादरी, प्रान्त-भाषा इन सब से ऊपर उठकर संगठित रूप में खड़ा नहीं होगा तब तक इस देश की समस्याओं का हल नहीं हो सकता इसलिए उन्होंने कहा कि देशभक्त और संगठित हिन्दू समाज देश की सब समस्याओं का निदान कर सकता है। लेकिन समाज के अंदर देशभक्ति और संगठन का भाव खड़ा कैसे हो, इसके लिए जिन लोगों से भी बात करते थे वो कहते थे हिन्दू तो बड़ा आपस में बंटा हुआ है, लड़ता है, झगड़ता है। गाँधी जैसे सरीखे लोगों ने कहा कि " Hindu, it is coward by nature and muslim is bullik" यानी कि मुसलमान गुंडा है और हिन्दू कायर है। होना चाहिए था कायर की कायरता दूर करने का प्रयास करते, गुंडों की गुंडागर्दी का शमन करने का प्रयास करते लेकिन हिन्दू समाज की वीरता पर उनको भरोसा नहीं था इसलिए गुंडे की गुंडागर्दी के आगे घुटने टेकने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस देश के अंदर ये परिस्तिथियाँ खड़ी हुईं और इसी के कारण डॉक्टर जी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हिन्दू समाज का जागरण, हिन्दू समाज का देशभक्ति के आधार पर देशव्यापी संगठन खड़ा करना पड़ेगा और इसी के लिए 1925 में उन्होंने राष्ट्रीय स्वमसेवक संघ के रूप में हिन्दू समाज के अंदर देशभक्ति जगाने का, संगठित करने का कार्य प्रारम्भ किया। सारे देश में, सारी दुनिया में आज हिन्दू संगठन का कार्य पंहुचा है ये उन्ही की प्रेरणा थी। लेकिन राष्ट्रीय स्वमसेवक संघ ने ये जो गुरुपूजन की परम्परा, व्यवस्था खड़ी की इसके पीछे भी इस देश के इतिहास की विवेचना का सत्य छिपा हुआ है। हम सब जानते हैं कि हमने विदेशी आक्रांताओं को पराजित करके निकाला। इस्लाम के आक्रमण का भी इस देश ने बड़ी वीरता से मुकाबला किया। पैगम्बर मोहम्मद ने अपनी मृत्यु से पहले दो इच्छाएं प्रकट कीं थीं पहला उन्होंने कि अरब के अंदर कोई भी गैर-मुस्लिम नहीं रहना चाहिए और दूसरा तूफ्र का किला हिन्दुस्तान को फ़तह करना चाहिए, ये उन्होंने अपने उत्तराधिकारियों को कहा। पहली जो उनकी इच्छा थी वो पहले ही ख़लीफ़ा ने उमर के जमाने में ही तय कर दिया गया जितने वहां पर ईसाई थे, यहूदी थे या गैर-मुस्लिम थे सबको या तो मार दिया गया या मतान्तरित कर लिया गया। मक्का-मदीने का क्षेत्र मुसलामानों के लिए सुरक्षित कर दिया गया। लेकिन दूसरा काम जो हुआ, खलीफा के समय से इस देश पर आक्रमण होना शुरू हुआ। पहला आक्रमण थाणे पर हुआ फिर भड़ौच पर हुआ, सूरत पर, देवल पर, कराँची पर सब जगह आक्रमण हुए। चार बड़े आक्रमण चारों खलीफाओं के समय के पराजित करके हमने उनकी सेनाओं को यहाँ से विदा किया। भारत में इस्लाम को पहली सफलता मिली सन 712 में जब सिंध पर राजा दाहिर को उन्होंने पराजित किया। राजा दाहिर लड़े, वीरता से लड़े, उनकी पराजय हुई उसके बाद उनकी रानी रानीबाई महिलाओं की सेना बनाकर युद्ध करने के लिए मोर्चे पर गईं लेकिन उन्होंने देखा पहली बार इस देश के अंदर युद्ध तो पहले भी होते थे, राजाओं से राजा लड़ते थे, सेनाओं से सेना लड़तीं थीं। जो जीतता था वो राज करता था जो हारता था वो मारा जाता था, भाग जाता था लेकिन जनता के विश्वास पर, आस्थाओं पर कोई चोट नहीं की जाती थी। लेकिन पहली बार उन्होंने देखा कि आक्रमणकारी यहाँ के मंदिरों को तोड़ते हैं, यहाँ की जीवन पद्द्यति को नष्ट-भ्रष्ट करते हैं, महिलाओं की सेना से युद्ध करने के वजाय महिलाओं का अपहरण करने में उनकी अधिक रूचि है और इसलिए सम्मान की रक्षा करने के लिए रानीबाई ने पहली बार सिंधु नदी के तट पर सामूहिक चिता में माताओं ने प्रवेश किया। 15000 माताओं का सिंधु में प्रवेश हुआ जौहर का। देश के इतिहास में जौहर की पहली घटना हुई। उसके बाद तो चली महारानी पद्मिनी के जौहर की कथा हमको मालूम होगी, रानी कर्णवती के जौहर की कथा हमको मालूम होगी। तब से लेकर भारत के विभाजन के समय जो अत्याचार हुए उस समय तक माताओं-बहनों ने धर्म के लिए, अपनी अस्मिता के लिए कैसा बलिदान किया वो सारी कथाएं हम सबको स्मरण होंगी। लेकिन सिंध पर आक्रमण हुआ, 712 में इस्लाम को विजय मिली। 730 में 18 वर्ष बाद चित्तौड़ के वाप्पारावल ने जाकर मुसलामानों पर आक्रमण किया, सिंध को विजय प्राप्त की। मुसलमान वहां से मार खाकर भागे, ईरान में भागे, ईरान में उन्होंने पीछा किया, ईरान को विजय प्राप्त की। स्फ़ाम तक उनकी सेनाएं गईं। आज भी ईरान के इतिहास में पढ़ाया जाता है कि चित्तौड़ के वाप्पारावल ने ईरान को जीता था सन 730 में और ईरान के राजा ने संधि की शर्तों में अपनी सभी बेटियों का विवाह, सभी माने 16 या 18 का वर्णन आता है, सभी बेटियों का विवाह वाप्पारावल से किया लेकिन ये विजय की गाथा हमारे देश के नौजवान को नहीं बताई जाती। हमने बार-बार आक्रमणकारियों को पराजित किया ये गौरवशाली इतिहास हमारे देश में नहीं बताया जाता। हमको केवल पराजय का, पराधीनता का, शत्रुओं की वीरता का प्रायः हमको वर्णन करके सुनाया जाता है और उसके बाद हमको मालूम है कि आज तक सन 730 से लेकर आज 2003 जा रहा है आज तक सिंध के मार्ग से दुबारा इस भारत की धरती पर मुसलमान ने आक्रमण करने का साहस नहीं उठाया। आक्रमण चला गया मध्य एशिया की ओर, मध्य एशिया में जाकर भारत के शीर्ष प्रान्त गान्धार पर आक्रमण होना शुरू हुआ। गान्धार जहाँ की बेटी गान्धारी, हम महाभारत में उसका नाम जानते हैं। गान्धार लड़ा, इस्लाम के आक्रमणकारी, इस्लाम के लोगों से एक-दो दिन नहीं, वर्ष-दो-वर्ष नहीं, पीढ़ी-दर -पीढ़ी लड़ा, पूरे 220 वर्ष लड़ा है गांधार। 220 वर्ष के बाद जब वहां इस्लाम को सफलता मिली तो वही गांधार आज अफगानिस्तान बन गया। उसके बाद पंजाब पर आक्रमण होना शुरू हुआ, 150 वर्ष पंजाब लड़ा। फिर दिल्ली पर आक्रमण होना शुरू हुआ, दिल्ली लड़ी। दिल्ली पर पहुंचे 1192 ईसवीं में पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद। सिंध से लेकर दिल्ली की दूरी 500 मील है, 500 मील की दूरी पार करने में उस विदेशी शक्ति को जिसने दस साल में तुर्की तक जीत लिया था, सीरिया तक जीत लिया था, जिसने ३० साल में ईरान जीत लिया था, जिसने 60 साल में इंडोनेशिया से मध्य एशिया तक अपना साम्राज्य खड़ा कर लिया था। उस इस्लाम की ताकत को 550 वर्ष से अधिक लग गया 500 मील की दूरी पार करने में। एक-एक इंच धरती पर हम लड़े, एक-एक इंच गांव पर हमने मुकाबला किया। हमारी वीरता का कोई दुनिया के अंदर तुलना नहीं की जा सकती। लेकिन हम जब भीलड़े एकजुट होकर लड़े तो हमे सफलता मिली। जब आपस में लड़ते रहे, भेदभाव-फूट की नीति का प्रयोग किया तो हमको पीछे हटना पड़ा, अपमानित और पराजित होना पड़ा। लेकिन ये सारे आतंक और अत्याचार को हम कैसे लड़ते रहे, जिस सारे आक्रमणों के, अत्याचार के बाद भी इस देश में हिन्दू पद बादशाही की स्थापना हुई। सारे देश के अंदर हिंदुत्व का गौरव खड़ा हुआ, दक्षिण में छत्रपति शिवाजी महाराज खड़े हुए तो पंजाब में गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज खड़े हो गए तो राजस्थान के अंदर मेवाड़ में राजा राजसिंह खड़े हो गए तो दुर्गादास राठौर खड़े हो गए तो बुंदेलखण्ड में वीर छत्रसाल खड़े हो गए, उधर बंगाल में कोई लाचित परसूदन खड़े हो गए, दक्षिण में विजय नगर का साम्राज्य खड़ा हो गया। देश भर में हमने संघर्ष किया विदेशी अत्याचारी और आक्रमणकारियों से और उस अत्याचारी और आक्रमणकारियों से बलिदान का परिणाम ये हुआ कि 700 वर्ष साम्राज्य चलाने के बाद भी इस्लाम को धीरे-धीरे इस देश की मुख्यधारा के अंदर विलीन होना शुरू हो गया। दाराशिकोह जैसे लोग उपनिषद और गीता पढ़ना शुरू कर दिए थे। मुग़ल बादशाह, वो मुग़ल राजकुमारियाँ होतो मुग़लानी पर हिन्दुआनी रहूंगी कहना शुरू कर दिया था। रहीम और रसखान जैसे लोग खड़े हो गए थे क्योंकि इस देश की मुख्यधारा में धीरे-धीरे उनका विलय होता चला जा रहा था। इस्लाम के जिस साम्राज्य की हम बात करते हैं सारा मुग़ल साम्राज्य दिल्ली के लाल किले में सिमट कर खड़ा हो गया था। दिल्ली के बादशाह की हैसियत दिल्ली के लाल किले से दिल्ली के चाँदनी चौक जाने के लिए भी उनको आरसी सिंधिया से अनुमति लेनी पड़ती थी। उनका साम्राज्य वहां सिमट कर रह गया था। लेकिन इस सब के बावजूद जब इस देश पर यूरोपियन ताकतों का आक्रमण होना शुरू हुआ तो हम तो इस मोर्चे पर लड़ते लड़ते हमको लग रहा था कि हम विजय प्राप्त कर रहे हैं लेकिन नई तकनीक और नई शक्ति लेकर जब यूरोप के आक्रमणकारी समुद्र मार्ग से भारत में प्रविष्ट हुए तो फिर से एक बार इस देश पर गुलामी का कालखंड मंडराया। हमने सामान्य रूप में गुलामी स्वीकार नहीं की। जगह-जगह संघर्ष हुए-बंगाल का संतान विद्रोह, विहार का सांथाल विद्रोह, सूरत का संघर्ष, अनेक राजे-महाराजाओं के द्वारा किया गया संघर्ष, इस सब के बावजूद इस देश में जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने एक बड़े क्षेत्र पर अपना अधिकार खड़ा कर लिया तो सब जगह मिलाकर सन १८५७ में एक सामूहिक संघर्ष का प्रयास किया गया। १८५७ की उस क्रांति से हम सब परिचित हैं। उस १८५७ में जिस अर्थ में उसको सफलता मिलनी चाहिए थी उस अर्थ में सफलता भले ही न मिली हो लेकिन १८५७ की क्रांति अपने आप में एक बहुत बड़ा प्रयास था। अंग्रेजों की सेना में जो भारतीय चले गए थे उसमे से एक लाख भारतीय सैनिक भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में युद्ध करते हुए उन्होंने अपना जीवन बलिदान किया। एक लाख वर्ग मील जमीन ईस्ट इंडिया कंपनी से लड़कर भारतीय वीरों ने जीत ली थी और उसके साथ ही हम लोगों ने, देश के चार करोड़ नागरिकों ने ब्रिटिश सत्ता को नकारकर भारतीय स्वतंत्रता के समर्थन में लोगों ने समर्थन खड़ा किया था। ये सारे आंकड़े स्वम् अंग्रेजों ने अपने अध्ययन के द्वारा बताये। लेकिन भले ही ब्रिटिश गवर्नमेंट के खिलाफ, कंपनी सरकार के खिलाफ १८५७ में इस संघर्ष में सफलता भले ही न मिली हो लेकिन इसका एक दूरगामी परिणाम हुआ कि अंग्रेज अपने इस देश के विषय में कुछ बातों पर विचार करने के लिए मजबूर हुआ क्योकि इससे पहले इंग्लैंड ने जहाँ जहाँ यूरोप के लोग गए थे उन्होंने अत्याचारपूर्वक उस देश को स्थायी उपनिवेश बनाने के लिए वहां पर जैसे अत्याचार किये, वहां की सभ्यता-संस्कृति को नष्ट किया वैसा ही वो लोग यहाँ प्रयोग करने वाले थे। आप सबको मालूम है कि यूरोप का यात्री कोलम्बस भारत को ढूंढने के लिए चला और अमेरिका पहुंच गया था 1492 ईस्वीं में। उस अमेरिका पहुंचते समय उस कोलम्बस को वहां पर जो लोग थे उनमे कोई भी ईसाई नहीं था। वहां की अपनी सभ्यतायें और संस्कृतियाँ थीं। वहां पर यूरोप के लोगों ने जहाज भर-भर कर सैनिक भेजे, बन्दूक और तोपें भेजी। जो लोग वहां के मूल नागरिक थे, रेड इंडियन्स कहलाते थे, उनकी जो सभ्यता थी मय सभ्यता उनको नष्ट किया गया और उनको नष्ट करने के बाद वहां के लोगों को जबरिया गुलाम बनाकर दुनिया के बाज़ारों में बेचा गया या उनको मतांतरित किया गया और जो न गुलाम बनने को तैयार हुए और न मतांतरित होने के लिए तैयार हुए ऐसे लोगों की हत्या कर दी गयी। कितना बड़ा हत्याकांड हुआ होगा इसका एक अनुमान आप सब लोग लगा सकते हैं। चर्च के रिकॉर्ड के हिसाब से, जो चर्च के लोगों ने लिखा है, कि सन 1492 में कोलम्बस पंहुचा। 1500 ईस्वीं में यानी कोलम्बस के पहुंचने के लगभग निकट अमेरिका के दोनों महाद्वीपों में मिलाकर अमेरिका की जनसँख्या नौ करोड़ थी उस समय। उस नौ करोड़ जनसँख्या को ईसाईकरण का प्रयास किया गया और सौ वर्ष बाद सन १६०० ईस्वीं में चर्च का रिकॉर्ड बताता है कि ये जनसँख्या घटकर पौने तीन करोड़ रह गयी थी यानी अगर जनसँख्या वृद्धि की दर को शून्य मान लिया जाए तो सौ वर्ष के अंदर अमेरिका के अंदर सवा छह करोड़ लोगों की हत्या करके अमेरिका को पूर्ण रूप से ईसाई बनाया गया और आज जो अमेरिका है वो यूरोप का उपनिवेश है। स्थायी उपनिवेश है। वहां के मूल नागरिक वहां के नागरिक अधिकारों से वंचित होकर रेड इंडियन्स बने है। सारा ऑस्ट्रलिया यहाँ पर मावारी नाम की जाति रहती थी जो शिव की भक्त थी यज्ञ करती थी त्रिकुण्ड लगाती थी वो सारी मावारी जाति समाप्त कर दी गयी। आज ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप पर रहने वाले लोग यूरोप से हुए लोग हैं उनका स्थायी उपनिवेश बना लिया गया। इंग्लैंड ने भारत का भी उपनिवेशीकरण करने के लिए इस प्रकार के मतान्तरण की रचना करने का प्रारम्भ किया था। लेकिन 1857 की क्रांति ने एक बात सिद्ध कर दी कि इस देश को स्थायी तौर से गुलाम नहीं बना सकते। इसलिए उनको ये बात समझ में आ गयी कि इस देश को गुलाम बनाने की उनकी जो वृत्ति है, मतान्तरण करने की उनकी जो प्रक्रिया है इसका विरोध कौन कर रहा है और इसका अध्ययन किया उन्होंने और उन्होने कहा कि यहाँ पर रहने वाला जो हिन्दू समाज है उसको इस बात का गर्व है, इस बात का स्वाभिमान है कि इस राष्ट्र के निर्माण उनके पूर्वजों के द्वारा हुआ है। इस राष्ट्र की संस्कृति का जन्म और विकास उनके पूर्वजों के द्वारा हुआ है। उन्होंने इस देश की रक्षा में, इस देश की संस्कृति की रक्षा के लिए सब प्रकार के अन्याय-अत्याचार का मुकाबला किया है, बड़े-बड़े बलिदान दिए हैं। और इसलिए हिन्दू समाज हर आने वाले आक्रमणकारी का मुकाबला करता है। अंग्रेजों के जो अध्ययनकर्ता थे वो इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अगर इस देश को स्थायी उपनिवेश बनाना है तो स्थायी उपनिवेश बनाने के लिए यहाँ पर रहने वाले हिन्दू समाज के मन में ये जो स्वाभिमान है, ये जो गर्व है कि ये देश मेरा है मेरे पूर्वजों के द्वारा इस देश की संस्कृति का निर्माण किया गया है, लिए जीना-मरना मेरा काम है, ये भावना समाप्त किये बिना इस देश को लगातार अपने कब्जे में नहीं रखा जा सकता। 1857 की क्रांति से पहले १८३३ में लार्ड मैकाले ने इंग्लैंड की पार्लियामेंट की कमिटी के सामने बयान दिया है जो रिकार्डेड है। उस बयान में उसने कहा है कि मैंने पूरब से पश्छिम और उत्तर से दक्षिण तक पूरा भारत घूम कर देखा है। भारत में कहीं भी कोई भी निरक्षर नहीं मिला, कोई भिखारी नहीं मिला। 1835 के बारे में बोलता है मैकाले। और उस समय उसने कहा कि ये एक संयोग है कि हमको इस देश पर राजनैतिक और सैनिक अधिपत्य मिल गया है। अगर हम इस देश पर स्थायी कब्ज़ा करके रखना चाहते हैं तो हमको यहाँ के समाज के मन में ये विश्वास खड़ा करना पड़ेगा कि तुम्हारे पूर्वजों तुमको जो शिक्षा दी है वो गलत है। तुम्हारे पूर्वजों ने तुमको जो सिखाया-पढ़ाया है वो अवैज्ञानिक है, अप्रगतिशील है और हम यूरोप के लोग जो तुमको बताते हैं वही सत्य है। उसी को मानकर तुम उन्नति कर सकोगे। इसके लिए यहाँ की शिक्षा प्रणाली को नष्ट करना चाहिए और यहाँ पर ऐसी शिक्षा प्रणाली विकसित करनी चाहिए जिसके माध्यम से अपने पूर्वजों के प्रति गर्व करना समाप्त हो जाये और इस देश के अंदर ऐसी शिक्षा प्रणाली को उन्होंने लागू करने का प्रयास किया। दूसरा निष्कर्ष उन्होंने निकाला कि इस देश में ऊपर से चाहे जितने भेद दिखाई देते हों- प्रांतों के, जातियों के, बोलियों के, भाषाओं के, खाने-पीने रहने-सहने के तरीके होते होंगे, पूजा पद्यतियाँ भी अनेक प्रकार के होते होंगे लेकिन इस देश के अंदर एक मौलिक एकता के सूत्र से सारा देश आवद्ध है। ये जो आतंरिक एकता, जब तक ये बची रहेगी तब तक इस देश पर कोई लगातार शासन नहीं कर सकता है। इसलिए इस बारे में बाकायदा योजना बनी 1875 में और उस योजना के अंतर्गत इस देश की एकता को नष्ट करने का प्रयास शुरू किया गया। इस देश के अंदर यहाँ रहने वाला बनवासी समाज जो इस देश की स्वतंत्रता की, इस देश की संस्कृति की धारा के साथ लगातार रहा। इस देश की आज़ादी की लड़ाई में हमेशा उसने साथ था। आखिर महाराणा प्रताप तो भील भी खड़े थे। शिवाजी महाराज के साथ मावळे उनका सहयोग कर रहे थे। ऐसे सारी वनवासी जातियों को उन्होंने शेष हिन्दू समाज से अलग करके कहा कि ये वनवासी हिन्दू नहीं हैं क्योंकि ये मूर्ति पूजा, मूर्ति बनाना, मंदिर बनाना नहीं जानते या ये वनवासी कोई वेद मंत्रों का पाठ नहीं करते या ये वनवासी पशु-पक्षी की, प्रकृति की पूजा करते हैं इसलिए उनके लिए नाम दिया गया "एनिमिस्ट" कि ये तो प्रकृति पूजक हैं, पशु पूजक हैं और इसलिए इनको हिन्दुओं की जनगणना से अलग किया जाए, हिन्दुओं से अलग किया जाए। उसके लिए उन्होंने वनवासी क्षेत्रों को इनर लाइन परमिट से बांटकर अलग कर दिया कि देश का कोई व्यक्ति, कोई धर्माचार्य जाकर उनको हिन्दू धारा के साथ, राष्ट्रीय धारा के साथ जोड़ न सके। आज मालूम है कि नागालैंड, मिजोरम, मेघालय, अरुणांचल इसके अंदर इनर लाइन परमिट है। देश का कोई साधु, संत, सन्यासी, कोई कार्यकर्ता वहां जाकर उनके बीच में अपनी बात कह नहीं सके। इसलिए उन्होंने वनवासियों को हमसे अलग किया। अरे, आखिर हम भी तो सब एनिमिस्ट हैं। गाय की पूजा, हाथी की पूजा, कुत्ते की पूजा, पेड़-पौधों की पूजा, नाग की पूजा, इन सब की पूजा तो हम लोग भी करते हैं, हम भी, सारा हिन्दू समाज प्रकृति पूजक है। लेकिन उनको हमारे समाज से काटकर एनिमिस्ट कर दिया। हिन्दू समाज का एक वर्ग हमसे अलग खड़ा कर दिया गया। हिन्दू समाज की एक रक्षक भुजा के रूप में केशधारी सिक्ख बंधू खड़े हुए थे। एक अंग्रेज आई सी एस ऑफिसर लगाया गया उसका नाम था मैटकांप। उसको काम दिया गया कि केशधारी बन्धुओं को शेष हिन्दू समाज से अलग करो। हम सब जानते है कि ग्रंथसाहब में जितने संतों की वाणी है वो सब हमारी ही हिन्दू जीवन पद्यति को, हिन्दू समाज के ही सारे संत हैं उसमे कबीर है, पीपु हैं, दादू हैं दन्ना हैं, रविदास हैं, ये सब हमारे ही है उसमे। गुरु महाराज स्वम् हिन्दू परंपरा के थे उन्होंने खालसा पंथ सजाते समय कहा कि सकल जगत में खालसा पंथ साजे, जगे धर्म हिन्दू सकल भांड बाजे। धर्म हिन्दू है, खालसा पंथ है उन्होंने स्पष्ट उच्चारण किया लेकिन मैटकांप ने कहा कि नहीं आपके गुरूद्वारे अलग हैं। आपकी पूजा पद्यति , वेशभूषा अलग है और उसने स्वम् भी अमृतसर में जाकर अमृत छका और केशधारी बन गया। उसने सिक्ख समाज को हिन्दू समाज से अलग एक पहचान देने का काम किया। एक आई सी एस ऑफिसर इस काम पर लगाया गया। उन्होंने कहा कि इस देश में ये जो हिन्दू समाज के अंदर स्वाभिमान था कि हम इस देश के मूल नागरिक हैं। उनका एक नया बिना किसी आधार का एक सिद्धांत इस देश पर थोपा। इस देश के अंदर आर्य नाम की एक जाति थी जो आक्रमणकारी थी। भारत पर आक्रमण किया। आर्य लम्बे थे, गेहुआँ रंग था, आँखें काली थीं, बाल घुंघराले थे, ठोड़ी चौड़ी थी वो घोड़े पर चलते थे, गाय पालते थे। आर्यों ने आकर भारत पर आक्रमण किया और यहाँ के मूल निवासी जो द्रविड़ थे उनको दक्षिण भारत में धकेल दिया। राम और रावण के युद्ध को उन्होंने आर्य और द्रविड़ो के युद्ध के रूप में खड़ा किया। दक्षिण भारत में रहने वाले द्रविड़ समाज के लिए उन्होंने कहा कि आपके साथ अन्याय हुआ, आपको न्याय मिलना चाहिए। इसलिए उसमे भी दो आई सी ऑफिसर्स लगाए गए। एक का नाम था डेविडसन दूसरे का नाम था गिलमेरी। दोनों ने मिलकर वहां पर रामास्वामी नायकार नाम के व्यक्ति को आगे करके एक द्रविड़ आंदोलन खड़ा किया कि हमारे साथ आर्यों ने अत्याचार किया, हमको बाहर धकेल दिया। आज का ये सब उसी द्रविड़ आंदोलन का जनक है जो सम्पूर्ण उत्तर भारत का विरोध करने के लिए बना है। हिंदी का विरोध, संस्कृत का विरोध, राम का विरोध, इसी में से सारा द्रविड़ आंदोलन खड़ा किया। इसके लिए भी आई सी एस ऑफिसर्स लगाए गए। मुसलमान ने भी इस देश में १८५७ की क्रांति में, देश की आज़ादी की लड़ाई में भाग लिया था। वो भी इस देश की मुख्य धारा के साथ जुड़ रहा था। उसको अलग खड़ा करने के लिए उन्होंने सर सैयद अहमद को आगे करके एक अंग्रेज मिस्टर बेग को लगाया और मिस्टर बेग के साथ मिलकर अलीगढ मुस्लिम विद्यालय खड़ा किया गया। लार्ड मिंटो के द्वारा मुस्लिम लीग का निर्माण किया गया और उसके द्वारा मुस्लिम समाज को कहा गया कि तुम तो इस देश में शासक रहे हो, हिन्दू तो तुम्हारे द्वारा शासित रहा है। शासक और शासित का मेल कैसे हो सकता है। तुम इनसे अलग होकर हमारे साथ खड़े हो। हम तुम्हारे अधिकारों की रक्षा करेंगे। इस देश को बंटवारा करने के लिए उन्होंने सबको अलग अलग किया। यहाँ तक कि इस देश में पढ़े लिखे लोग अंग्रेजों की शिक्षा पद्यति से, मैकाले की शिक्षा पद्यति से निकल रहे थे वो लोग अंग्रेजों के अनुकूल बनकर खड़े हों इसकी उनको चिंता होने लगी क्योकि इस देश में १८३५ में लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्यति लागू हुई और मैकाले की शिक्षा पद्यति से इस देश में जो पहला स्नातक बना, हम सब जानते हैं, इस देश का सौभाग्य कि वो पहले स्नातक हुए बंकिम चंद चट्टोपाध्याय। जिसने आनंद मठ लिखा। जिसने वन्देमातरम के रूप में इस राष्ट्र में राष्ट्रीयता की एक पहचान खड़ी की। इसी के कारण उनको ये समझ में आ गया कि अंग्रेज लोग अगर अपने पढ़ाये लिखाये लोगों को इकठ्ठा नहीं करेंगे तो हम शायद इस देश पर लम्बे समय राज्य नहीं कर सकेंगें। इसलिए उन्होंने पढ़े लिखे अंग्रेजो की शिक्षा पद्यति से आये हुए जो लोग थे, इनको भी देना चाहिए, मंच देना चाहिए इसके लिए भी एक अंग्रेज आई सी एस ऑफिसर की नियुक्ति की गई उसका नाम था ए ओ ह्यूम। उसने पढ़े लिखे भारतियों को अंग्रेजों के लिए अनुकूल बनाने के लिए, बफादार बनाने के लिए एक मंच खड़ा किया था उसका नाम था इंडियन नेशनल कांग्रेस। इंडियन नेशनल कांग्रेस के जो प्रारंभिक वर्षों के, १८८५ में इसकी स्थापना की गई, प्रारंभिक दिनों में इसके जो सम्मलेन होते थे उसमे कैसे भाषण होते थे, आज कोई देशभक्त पढ़े-सुने तो उसको लज्जा आएगी। डब्ल्यू सी बनर्जी उसके अध्यक्ष चुने गए। उनका भाषण था "हम परमपिता परमेश्वर को उनकी असीम अनुकम्पा के लिए धन्यवाद देते हैं क्योंकि उन्होंने इंग्लैण्ड की न्यायप्रिय महारानी विक्टोरिया को भारत पर शासन करने के लिए भेजा। हम उसकी स्वामिभक्त प्रजा हैं। " ये कांग्रेस के प्रस्ताव है। कांग्रेस का प्रस्ताव है हम उन दुर्वीरों की कल्पना भी नहीं कर सकते कि हमारे अंग्रेज शासक स्वामी हमारे भारत को छोड़कर चले जाएंगे। हम ऐसे दिन के लिए तैयार नहीं हैं। कांग्रेस के प्रताव हैं, पहले नहीं, दूसरे-तीसरे, ये सब रिकार्डेड है, छप चुका है। उसमे प्रस्ताव किया गया कि हिंदुस्तान की आज़ादी की बात करने वालों के लिए इस देश में दो ही स्थान सुरक्षित हैं या तो जेलखाना या तो पागलखाना। ये इस देश में आज़ादी की लड़ाई में उसकी भूमिका थी। लेकिन धीरे धीरे देश का चित्र बदलना शुरू हुआ। लाल-बाल-पाल आये। स्वाधीनता का आंदोलन, स्वदेशी का आंदोलन चलना शुरू हुआ। क्रांतिकारी खड़े हो गए। वो कोई खुदीराम बोस खड़े हो गए, कोई प्रफुल्ल चंद चाकी आ गए। कोई विदेशों में रहने वाले भारतियों ने ग़दर पार्टी बना ली। इस सब का परिणाम धीरे धीरे देश पर होना शुरू हुआ और हम सबको मालूम है कि इस देश के अंदर एक राष्ट्रीय धारा का विकास भी होना शुरु हुआ। लेकिन ये दो धाराएं देश में समानान्तर चल रहीं थी। एक ओर राष्ट्र का निर्माण, राष्ट्रीय किसको कहेंगे इसके बारे में विचार करने वाले लोग खड़े थे कि आखिर राष्ट्र कैसे बनता है, केवल भूमि से नहीं बनता। भूमि, भूमि पर रहने वाला समाज और उसकी संस्कृति ये तीनों मिलकर राष्ट्र का निर्माण करते हैं। संस्कृति कोई एक दिन में पैदा नहीं होती। संस्कृति धीरे धीरे विकसित होती है। तो एक धरती, एक जन और एक संस्कृति के आधार पर राष्ट्र का निर्माण होता है। वो लोग राष्ट्रीय माने जाते हैं जो उस भूमि के साथ मातृवत सम्बन्ध खड़ा करते हैं, उस भूमि की संस्कृति के साथ आत्मीयतापूर्ण सम्बन्ध विकसित करते हैं, वो उस देश के राष्ट्रीय कहलाते हैं। किसी भी देश के लिए ये परिभाषा लागू होती है। हमारे राष्ट्र निर्माण कब से शुरू हुआ तो वेदों से प्रारम्भ करते हैं। 'माताभूमि पुत्रोहं पृथिव्या" ये पृथ्वी हमारी माता है हम इसके पुत्र हैं। ये माता और पुत्र का सम्बन्ध था जिसने इस भारत को, इस हिन्दुस्तान को एक राष्ट्र के रूप में खड़ा किया। इस राष्ट्र की परम्परा को बढ़ाया। भगवन श्री राम जिन्होंने कहा "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" ये जननी हमारे लिए जन्मभूमि है। इसलिए भगवान् राम हमारे राष्ट्र पुरुष कहलाये। ये राष्ट्र को एक करने वाले लोग। भगवान् राम ने उत्तर से दक्षिण को जोड़ा वो राष्ट्र पुरुष बने। भगवान् कृष्ण ने पूरब को पश्चिम से जोड़ा वो राष्ट्रपुरुष बने। भगवान् शिव ने सारे राष्ट्र को जोड़ा इसलिए सारे देश में वो ज्योतिर्लिंग के रूप में विराजमान हैं। इसलिए वो हमारे राष्ट्रपुरुष कहलाये। इस देश की एकता, अखण्डता के लिए जिन्होंने कहा उनको हमने राष्ट्रीय महापुरुष माना। और इसलिए राष्ट्र की परिभाषा बनी कि जो इस देश की धरती को अपनी माता मानता है, माता के प्रति जो कर्तव्य पालन करता है। इस देश की संस्कृति के साथ अपने को जोड़ता है वो इस देश का राष्ट्रीय समाज है। और राष्ट्रीय समाज ही राष्ट्र की धरती को, उस राष्ट्र का स्वामी भी होता है और उसका निर्णायक भी होता है। लेकिन हमारे देश के अंदर अंग्रेज के आने के बाद जब आर्यों के आक्रमण का गलत सिद्धान्त हमारे सामने रखा और उसके माध्यम से हमारे देश में एक भ्रम का निर्माण किया कि राष्ट्र एक भौगोलिक संकल्पना है। इस भूमि पर रहने वाले सभी लोग राष्ट्रीय हैं इसलिए चाहे वो आक्रमणकारी हैं, अत्याचारी है, लुटेरा है, डकैत है, घुसपैठिया है, जो भी है चाहे वो इस देश को लूटने के लिए आया है, देश के मंदिरों को तोड़ने के लिए आया है, देश को गुलाम बनाने के लिए आया उसकी मंशा कुछ भी हो उसकी प्रेरणा कुछ भी हो, उसका क्रियाकलाप कुछ भी हो उस सब को हमने राष्ट्रीय मानना शुरू कर दिया। राष्ट्रीयता की ये जो भौगोलिक संकल्पना खड़ी हुई, ये राष्ट्रवाद की जो सांस्कृतिक धारा थी उसके विपरीत अंग्रेज ने इस देश के अंदर सांस्कृतिक धारा को खड़ा किया और इसलिए उन्होंने कहा कि जो भी इस देश में रहते हैं राष्ट्रीय है। उनका इस देश के प्रति कोई कर्तव्य हो न हो पर इस देश पर अधिकार ज़माने का उनको अधिकार है। इसलिए इसी गलती में से हमने इस देश का विभाजन स्वीकार किया। हमने कहा ये जो विभाजन है, जो लोग इस देश में आ गए भले ही लूटमार के लिए आये थे, आक्रमणकारी बनकर आये थे, अत्याचारी बनकर आये थे, चूँकि वो इस देश की धरती पर रहते हैं उनका भी अधिकार है। उनको भी इस देश में बंटवारा कर देना चाहिए। हमारे नेता आज भी हमको समझते हैं कि ये -तो भाई-भाइयों के बीच बंटवारा हो गया। क्षमा कीजिये हमारे देश में भाई-भाइयों का आदर्श भगवान् श्री राम हैं, भरत हैं। एक भाई राज्य को दूसरी तरफ ठोकर मारता है दूसरा भाई इधर ठोकर मारता है। लेकिन कभी दुर्भाग्यपूर्ण क्षण ऐसा आ भी जाता है। बंटवारा होता भाई-भाइयों के बीच में। तो क्या बंटता है- रुपया पैसा कपड़ा लत्ता सोना चाँदी बँट जाता होगा। कभी किसी ने सुना क्या कि दो भाइयों के बीच में बंटवारा हुआ हो कोई भाई माँ का सिर काट कर ले गया हो, कोई भाई माँ के पैर काट कर ले गया। अगर वो माता है तो माता का बंटवारा हो नहीं सकता। अगर भारत माता हमने इसको माना है तो बंटवारा हो नहीं सकता और जिन्होंने भी इस माता के बँटवारे की बात की, जिन्होंने भी समर्थन किया और जिन्होंने भी मांग को स्वीकार किया वो कुछ भी हो सकते हैं लेकिन माता की सन्तान कहलाने के लायक तो नहीं हो सकते। इस देश में मुस्लिम लीग ने भारत माता के बँटवारे की बात की थी। कम्युनिस्ट पार्टी ने भारत माता के बँटवारे का समर्थन किया था। कांग्रेस ने इस देश में भारत माता के बँटवारे को स्वीकार किया था। आप लोग किस मुँह से भारत माता की जय बोलते हैं, वो भारत माता कौन सी है, १४ अगस्त, १९४७ से पहले वाली भारत माता या १५ अगस्त १९४७ के बाद वाली भारत माता ! अगर ये माता है, हमने माता इसको माना है, इसके साथ हमारा माता-पुत्र का नाता है तो कोई भी पुत्र अपनी माता को अपमानित होते, अंग-भंग होते देख नहीं सकता। ये जो राष्ट्रीयता की गलत संकल्पना खड़ी की गयी हमारे देश के अंदर कि राष्ट्र के अंदर जो कोई भी आ जायेगा वो इस देश के राष्ट्रीय हो जाएंगे। इस परम्परा के कारण हमने देश का बँटवारा स्वीकार किया। विभाजन कोई सामान्य घटना नहीं थी। बीस लाख लोग मारे गए। दो करोड़ लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा। दुनिया के बड़े बड़े महायुद्धों में जितना विनाश हुआ उससे ज्यादा विनाश हमने इस भारत के विभाजन के समय देखा है। और आज भी इस देश के सामने जो भी बड़ी से बड़ी समस्याएँ और चुनौतियाँ खड़ी है उसके पीछे इस विभाजन की मानसिकता ही है क्योंकि आज देश के अंदर हमने इतने युद्ध झेले। आज जो घुसपैठ हो रही हैं, आतंकवाद हो रहा है, अराजकता हो रही है उसके पीछे क्या है ? भारत का अप्राकृतिक विभाजन है। अगर भारत माता अखंड होती तो आज हम विश्व की एक बड़ी शक्ति के रूप में खड़े होते। आज हमको सुरक्षा के लिए, आतंक से लड़ने के लिए जो बलिदान देने पड़ रहे हैं शायद ऐसी नौबत नहीं आयी होती। लेकिन हमने राष्ट्रीयता की ठीक पहचान न करने के कारण विदेशियों द्वारा थोपे गए भौगोलिक राष्ट्रवाद की गलत संकल्पना को स्वीकार करने के कारण हमारे देश को अपमानित और पराजित होना पड़ा। हमारे देश को भारत माता के बँटवारे जैसा अपमानजनक कृत्य स्वीकार करना पड़ा। और आज भी जो सारी समस्याएं उसमे से खड़ी है। आज भी दुर्भाग्य की बात देखिये कि भारत स्वतंत्र हुआ, हमने बंटवारा कर दिया। बँटवारा करने के बाद भी दुर्भाग्य से सत्ता ऐसे लोगों ने स्वीकार की जिनको इस देश की राष्ट्रीयता की सही कल्पना नहीं थी। और इसलिए भारत के मनोनीत प्रधानमंत्री १४-१५ अगस्त 1947 की रात को जो उनका पहला ऐतिहासिक भाषण हुआ उन्होंने उसमे कहा कि " we are a nation in making" ये एक राष्ट्र है जो निर्माण होने जा रहा है। वो सनातन और पुरातन राष्ट्र, वेदों के काल में क्या हम राष्ट्र नहीं थे, रामायण महाभारत के काल में हम राष्ट्र नहीं थे, चाणक्य और चन्द्रगुप्त के काल में हम राष्ट्र नहीं थे, विक्रमादित्य के काल में हम राष्ट्र नहीं थे, जब यूनानियों से लड़ रहे थे, तुर्कों से लड़ रहे थे, मुग़लों से लड़ रहे थे तब क्या हम राष्ट्र नहीं थे। आखिर कौन लड़ रहा था। वो राष्ट्र ही लड़ रहा था लेकिन उस राष्ट्र को नकारकर उन्होंने ये घोषित कर दिया कि ये राष्ट्र तो १४-१५ अगस्त १९४७ की रात को जन्मा। इसलिए सारे राष्ट्र की संकल्पना ही बदल गयी। आज हर चीज उसी में से खोजकर निकाली जा रही है। आज भी राष्ट्र के लिए कोई राष्ट्रपिता खोजे जा रहे हैं। राष्ट्र का नया ध्वज बनाया जा रहा है। राष्ट्र की नयी भाषा ढूंढी जा रही है। राष्ट्र के लिए नए-नए संस्कार, वो टीचर्स डे ढूंढ लिया गया। हमको परम्परागत अपना गुरु पूर्णिमा ध्यान नहीं आयी, पूजा याद नहीं आयी। हमे नए-नए पर्व और उत्सव ढूंढने पड़ रहे हैं क्योंकि हमने राष्ट्र की लाखों साल की परम्परा से काटकर हमने उस राष्ट्र को अप्लव राष्ट्र के रूप में थोपना शुरू कर दिया जो १४ अगस्त १९४७ की रात को जन्मा था जिसके विधाता लोग उसकी सत्ता को खींच कर उधर ले गए जो परंपरा से काट कर, जड़ों से काटकर राष्ट्र को बड़ा करने की कोशिश कर रहे थे। इसी के कारण सारी समस्याएं खड़ी हुईं हैं। आज इस क्षेत्र के अंदर हम लोग काम करते हैं। मेरा परिचय कराया गया कि मैं संघ का प्रचार प्रमुख हूँ। मीडिया के क्षेत्र में मुझे काम करना पड़ रहा है। मीडिया के क्षेत्र के अंदर भी आज वही सारा भ्रम खड़ा हुआ है। शिक्षा के क्षेत्र से जो भ्रम खड़ा किया गया, राजनीती के क्षेत्र से जो भ्रम खड़ा किया गया उसी का परिणाम आज मीडिया के क्षेत्र में भी दिखाई पड़ता है। आज भी इस देश में लोग अपने को राष्ट्रीयता की मुख्य धारा से जोड़ने का प्रयास नहीं करते। उनके मन में आज भी इस देश की मुख्य धारा के वजाय आज भी कहते हैं कि ये तो कम्पोज़िट कल्चर है। गैया-गैया- जमुनी संस्कृति का देश है। मैं अभी परसों ही पूज्यनीय रज्जू भैया का अस्थि कलश का विसर्जन था प्रयाग में संगम पर। मैं स्वम् भी उस कार्यक्रम में उपस्थित था। जहाँ तक गंगा जी आ रही हैं, गंगा जी दिखाई देती हैं जहाँ तक यमुना जी आ रही हैं, यमुना जी दिखाई देती हैं लेकिन जहाँ गंगा और यमुना की धारा मिलती है उसके एक मीटर आगे भी किसी से पूछो कि ये क्या है तो गंगा-जमुनी संस्कृति तो कहेगा नहीं, कहेगा कि गंगा जी हैं। गंगा के अंदर कितनी नदियाँ मिली होंगी, गंगा जी में कितने नाले मिले होंगे, जो भी मिले क्या कहलाये, गंगा जी कहलायगी। मुख्य धारा में जो कुछ भी मिलता है वही मुख्य धारा कहलाती है। गंगा-जमुनी नाम की कोई चीज इस देश में कोई नदी नहीं देखी मैंने। लेकिन गंगा जमुनी संस्कृति आज भी इस देश में है। हमको वही पढ़ाया जा रहा है कि सेक्युलरिज़्म के नाम पर थोपा जा रहा है कि इस देश के अंदर कोई राष्ट्रीय समाज नहीं है। बंग्लादेश से अगर करोड़ों घुसपैठिये आ जाते हैं तो उनको भी उतना ही अधिकार प्राप्त है जितना आपको अधिकार प्राप्त है जिनके पूर्वजों ने इस देश को खून पसीने से सींचा है। इस देश के अंदर ये राष्ट्रीयता का जब तक गलत विचार चलता रहेगा तब तक सब क्षेत्रों में भ्रम पैदा रहेगा। आज कैसा दुर्भाग्य है आज़ादी के पचास साल के बाद भी इस देश के अंदर हम भ्रम में जी रहे हैं। विद्यालय के अंदर हमको पढ़ाया जाता है " अकबर-दि ग्रेट" अकबर महान का इतिहास हम पढ़ते हैं और घर में महाराणा प्रताप का चित्र लगाते हैं। हम आज तक ये नहीं तय कर पाए कि महराणा प्रताप हमारे आदर्श हैं या अकबर हमारा आदर्श है। आज पचास साल बाद भी हम ये तय नहीं कर पाए कि औरंगजेब हमारा आदर्श है या शिवाजी महाराज और गुरु गोविन्द सिंह जी हमारे आदर्श हैं। हम भ्रम में एक नयी पीढ़ी को विकसित कर रहे हैं। और इस भ्रम के कारण राष्ट्रीयता की पहचान आज भी नहीं कर पा रहे। और इसलिए वो हर चीज को उसी नजरिये से देखते हैं। कैसी दुर्भाग्य की स्थिति है। मीडिया के क्षेत्र में हम लोग काम कर रहे हैं। मैं एक दो घटनाएं बताता हूँ कि कैसा हमारे मित्रगण सोचते हैं। पिछले वर्ष आपको याद होगा गोधरा में एक बड़ी घटना हुई थी। गोधरा कांड हुआ जिसमे ५८ राम भक्तों को जिसमे छोटे-छोटे बच्चे थे, माताएं- बहनें थी जिन्दा जलाकर रेलगाड़ी में मार दिया गया। लेकिन उस घटना का शीर्षक टाइम्स ऑफ़ इंडिया क्या लगाता है, हिन्दुतान टाइम्स क्या लगाता है ! अंग्रेजी के अखबार जो उस विदेश पोषित मानसिकता से विकसित हुए वो लिखते है, हिन्दुस्तान टाइम्स का शीर्षक अगर आपको स्मरण हो " Ayodhya beckleft in a Gujrat" आप क्या सन्देश देना चाहते हैं कि जो भी गुजरात जायेगा उसके साथ ऐसा ही होगा, ये अयोध्या का बदला था क्या ये। आप निर्दोष नागरिकों की हत्या को अयोध्या के साथ जोड़कर इस देश के हिन्दू समाज को आतंकित करना चाहते हैं या आतंकवादियों का समर्थन करना चाहते हैं। टाइम्स ऑफ़ इंडिया लिखता है इतनी बड़ी दुर्घटना पर कि " prime minister in dock" प्रधानमंत्री कटघरे में क्यों खड़ा कर दिया आपने। प्रधानमंत्री ने तो आगजनी नहीं की थी। जिन हत्यारों ने आगजनी की थी उनके खिलाफ तो आप लोगों ने कुछ नहीं लिखा। ऐसी घटनायें आप लिख सकते हैं हिन्दू समाज के खिलाफ। उस शिक्षा पद्यति में से खड़े होकर, पढ़ कर आ रहे हैं वो मीडिया को उसी दिशा में ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरी एक घटना मैं याद दिलाता हूँ बांयाम में बुद्ध की एक बड़ी प्रतिमा, विश्व का एक बड़ा कीर्तिमान था और वो जिस ढंग से तोड़ी गयी- तोपों से, रॉकेटों से, टैंकों से गोले बरसाकर। किसी भी स्वाभिमानी देशभक्त के लिए, किसी भी हिन्दू के लिए ये अपमान की एक बड़ी घटना थी। उस घटना पर आहत हिन्दू समाज के लिए मलहम लगाने का काम क्या कर रहे थे। हिंदुस्तान टाइम्स में सिद्धार्थ वरद राजन ने इसकी रिपोर्टिंग की उसका शीर्षक था " if there is mulla umar" आपको मुल्ला उमर का नाम ध्यान में आ गया होगा बिन-लादेन का स्वसुर और उनका वहां का शासक " if there is mulla umar, here is Girraj kishore" इस शीर्षक का आप क्या समझते हैं। बांयाम में हमारे भगवन बुद्ध की प्रतिमा तोड़ी जाती है और उसकी खबर अखबार ऐसे छापेगा। आप क्या छापना चाहते हैं। हमारे देश के लिए वो छापते हैं टाइम्स ऑफ़ इंडिया में, सम्पादकीय का शीर्षक लगाते हैं "hollow hinduism" हिन्दुइस्म का थोकडापन। मैं अभी आ रहा था रास्ते में मुझे बम्बई के हिन्दुस्तान टाइम्स अखबार की एक कटिंग मुझे एक सज्जन ने भेजी। एक आर्टिकल मुझे रास्ते में पढ़ने के लिए मिला उसमे उनका शीर्षक है "save music from hindu talibaan" भई हिन्दू तालिबान कैसे हो सकता है। लेकिन उनकी मानसिकता है क्योकि उनको बताया ही गया है कि हिन्दू मुस्लिम सब इस देश के राष्ट्रीय हैं। इसलिए सबको एक बराबर तराजू के पलड़े पर रखो- आक्रमणकारी को, अत्याचारी को। एक तरफ औरंगजेब है तो दूसरी तरफ गुरु गोविन्द सिंह जी के बच्चे भी उसी पलड़े पर रखे जा सकते हैं। अत्याचारी, हत्यारे, आक्रमणकारी और देशभक्त, देशधर्म के लिए बलिदान होने वाले सब एक पलड़े पर खड़े कर दिए जाएंगे। आज भी वो कहते हैं कि “save music from hindu Taliban” अरे, हमारे लिए hollow hinduism लिख सकते हैं, हिन्दुइस्म का थोकड़पन। आपको याद होगा कुछ दिनों पहले एक इंडियन एक्सप्रेस का जो चेन्नई एडिशन है उसमे एक छोटी सी जो रविवारीय अखबार का जो पन्ना रहता है उस पर एक छोटी सी कहानी छाप दी। एक बालक की जो मंदबुद्धि था, उसकी एक कहानी माने काल्पनिक कहानी और वो कैसी कैसी हरकतें करता है ऐसी एक बच्चों के लिए कहानी लिखी। संयोग से वो जो कहानी का पात्र था उसका नाम मोहम्मद था। और इसलिए उस कहानी का शीर्षक दे दिया गया इडियट मोहम्मद। इस घटना पढ़ने के बाद, बच्चो की कहानी थी, काल्पनिक कहानी थी, काल्पनिक नाम था। लेकिन इंडियन एक्सप्रेस के दफ्तर पर हमला हुआ, प्रेस जला दी गई, संपादक की गिरफ़्तारी हो गई। मोहम्मद का नाम राम भी हो सकता था, कृष्ण भी हो सकता था, गोविन्द भी हो सकता था, शिवजी-प्रताप भी हो सकता था हिन्दू समाज व्यक्त करता क्या? तो हिन्दू समाज को आप hollow hinduism लिख सकते हैं, हिन्दू तालिबान लिख सकते हैं। ये केवल संघ के ऊपर आक्रमण है ऐसा नहीं है। संघ तो उस राष्ट्रीय धारा का प्रतीक है। इसलिए संघ आक्रमण का शिकार होता है, वैचारिक आक्रमण का शिकार होता है। संघ के ऊपर आक्रमण नहीं है ये इस देश की राष्ट्रीयता के ऊपर आक्रमण हो रहा है। ये राष्ट्रीयता का वैचारिक आक्रमण ये मीडिया के माध्यम से भी हो रहा है, विदेशी पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से भी हो रहा है, देशी पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से भी हो रहा है। ये संसद में भी दिखाई देता है और ये यहाँ की शिक्षा पद्यति में भी दिखाई देता है। इस देश के अंदर इस साड़ी चीज का उत्तर कौन देगा, आखिर में इस सारी चुनौती को स्वीकार करना, इसका उत्तर देना ये हम सबकी जिम्मेदारी है। और इसलिए जब हम कहते हैं हम सांस्कृतिक राष्ट्र की धारा को मानते हैं। सांस्कृतिक राष्ट्र की धारा के प्रतीक के रूप में हमने परम पवित्र भगवा ध्वज को अपना गुरु माना है, उसका पूजन वंदन किया है। हम सब लोग इसको अपना आदर्श मानते है, भगवा ध्वज को। तो भगवा ध्वज माने तो इस देश की वो सनातन, पुरातन जो सांस्कृतिक धारा है, उसका प्रतीक है। और हमने जब इसको प्रतीक के रूप में स्वीकार किया इसका कि हम इस राष्ट्र की जो सनातन, पुरातन धारा है हम उसको स्वीकार करते हैं। हमारा राष्ट्र वो वेदों के काल से प्रारम्भ हुआ है, १४ अगस्त,१९४७ की रात को पैदा नहीं हुआ है। और इसलिए जब हम उस सारी धारा के साथ इस ध्वज का पूजन वंदन करते हैं तो वर्ष में एक बार आने से, पत्र-पुष्प भेंट करने मात्र से काम नहीं चलता। हमारे मन में ये श्रद्धा और विश्वास खड़ा होना चाहिए कि ये हमारा सांस्कृतिक राष्ट्र की जो धारा है, ये धारा प्रबल होनी चाहिए। और इसके ऊपर जितने प्रकार के आक्रमण हो रहे हों चाहे वो शारीरिक आक्रमण हैं, चाहे वो वैचारिक आक्रमण हैं, उन सबका मुकाबला करने के लिए समाज को खड़ा करने का काम हम सबको मिलकर करना पड़ेगा। आज संघ में अनेक प्रकार की पात्र-पत्रिकाएं प्रारम्भ हुईं। दैनिक पत्र हैं, साप्ताहिक पत्र हैं, मासिक पत्रिकाएं हैं। देश भर के अंदर ३० विश्व संवाद केंद्र चल रहे हैं, ३४ अलग-अलग भाषाओँ में हमारी जागरण पत्रिकाएं चल रहीं हैं। देश के ढाई लाख से अधिक गांव में हमारे पत्र पहुंचते हैं। अनेक प्रकार का देश में ही नहीं, देश के बाहर भी दुनिया में हमारी ताकत बढ़ रही है। लेकिन आज जो सारे विश्व के सामने चित्र खड़ा हुआ है उस चित्र में हिन्दू राष्ट्रीयता के ये जो संस्कृति की मुख्य धारा है इसको प्रबल करने की आवश्यकता है। और ये आवश्यकता केवल राष्ट्रीय स्वम् सेवक संघ अनुभव करता है ऐसा नहीं है। आप सबको स्मरण होगा शांति के लिए नोबेल पुरूस्कार २००२ का संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव कोफ्फी अन्नन साहब को मिला। पिछले वर्ष फरवरी में वो अपना नावेल पुरूस्कार ग्रहण करने के लिए स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोल्म गए थे, वहां नोबेल लिटरेट सब इकट्ठे थे उनके बीच में उनको भाषण के लिए विषय दिया गया कि विश्व की शांति के सामने खड़ी चुनौतियां और उसका समाधान। चूँकि उन्हें शांति के लिए नावेल पुरूस्कार दिया जा रहा था इसलिए उनको इस विषय पर बोलने के लिए कहा गया। उन्होंने विश्व की शांति सामने जो खतरे हैं उन सबका वर्णन किया है कि ये neuclear weapons की लड़ाई हो, vactarial weapons आ सकते हैं सब कुछ। लेकिन उस समय बताते समय उन्होंने कहा कि एक समय दुनिया की शांति के सामने सबसे बड़ा खतरा है वो है उन असहिष्णु और अनुदार विचारधाराओं के कारण विश्व की शांति को सर्वाधिक खतरा है जो विचारधाराएं दूसरे के अनुयायी को जीवित भी नहीं देखना चाहतीं हैं। ये सब वर्णन करने के बाद अन्नन साहब कहते हैं कि लेकिन बहुत चिंता की बात नहीं क्योंकि दुनिया में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो इसके विपरीत सोचते हैं। और शांति का ये रास्ता भारत में होकर जाता है जहाँ का रहने वाला बहुसंख्यक समाज कहता है कि तुमको भी ज़िंदा रहने का, अपने विश्वास को पालन करने का उतना ही अधिकार है जितना मुझको अधिकार है। वो हिन्दू शब्द उनको संकोच हुआ होगा लेकिन ये एकं॒ सद्विप्रा॑ बहु॒धा व॑दन्ति, सत्य एक है, सब मार्गों तक उसी से पंहुचा जा सकता है कौन कहता है ! वासुदेव कुटुंबकम, सारा विश्व एक परिवार है कौन कहता है ! सत्यमेव जयते कौन कहता है ! सर्वे भवन्तु सुखिनः कौन कहता है ! ये हिन्दू समाज ही कहता है। और हिन्दू समाज जैसे जैसे शक्तिशाली-बलशाली होता जाता है वैसे वैसे ये दुनिया के अंदर ये शांति के ऊपर मँडरा रहे खतरे से मानवता की रक्षा की जा सकती है। इसलिए केवल हिन्दू समाज की शक्ति बढ़ाना, हिन्दू समाज को संगठित करना ये राष्ट्रीय स्वम् सेवक संघ की जिम्मेदारी मात्र नहीं है। ये विश्व मानवता की रक्षा के लिए, विश्व के कल्याण के लिए आवश्यक है। लेकिन ये हिन्दू जीवन पद्यति दुनिया में कितनी भी प्रभावी खड़ी रही हो लेकिन अगर उसको घर में सम्मान नहीं मिले तो जिसकी घर में इज़्ज़त नहीं होती उसकी पड़ोसी भी क्यों इज़्ज़त करेंगे अभी इस वर्ष दीपावली के अवसर पर हिन्दू स्वयंसेवक संघ जो इंग्लैंड में काम करता है, उसके आव्हान पर इंग्लैंड की संसद में दीपावली का उत्सव मनाया गया। भगवान् श्री राम की साढ़े छह फ़ीट ऊँची कांस्य प्रतिमा संसद भवन के परिसर में राखी गयी। और १३५ सांसदों ने, इंग्लैंड के १३५ संसद जो इंग्लैंड के अलग-अलग पार्टियों के थे उन्होंने आकर भगवान् राम की मूर्ति पर पुष्पार्चन किया और दीपक जलाकर दीपावली की शुभकामाएं दीं। कल्पना कीजिये यही घटना भारत की संसद में दिल्ली में हो रही होती तो शोर मच जाता कि भगवाकरण कर रहे हैं, देखिये साहब दीपावली मनाये दे रहे हैं। तो इस देश के अंदर, वहां विदेशों के अंदर हिन्दू समाज शक्तिशाली हो रहा हो, हिन्दू जीवन पद्यति को दुनिया सम्मान दे रही हो। लेकिन घर के अंदर हिंदुस्तान में हिन्दू जीवन पद्यति, हिन्दू समाज बलशाली-शक्तिशाली खड़ा नहीं होगा, तब तक इन सब चुनौतियों का उत्तर नहीं दिया जा सकता और इसलिए शक्तिशाली, समर्थ, संगठित हिन्दू समाज देश की सब समस्यायों का हल करेगा और हिन्दू समाज के सामने आज ये वैचारिक चुनौती है और ये चुनौती वो लोग दे रहे हैं जो साम्राज्यवादी शक्तियों के द्वारा प्रेरित, पोषित और प्रशिक्षित लोग हैं। आज संघ के ऊपर आप सुनते होंगे कि संघ की आलोचना आ रही है। केवल संघ की आलोचना नहीं है ये उस हिंदुत्व की आलोचना है, उस राष्ट्रीयता की आलोचना है। संघ तो उसका प्रवक्ता है, उसका पुरस्कर्ता है इसलिए लोग उसको निशाने पर रखते हैं। ये वास्तव में उनका आक्रमण इस देश की राष्ट्रीयता पर है और राष्ट्रीयता पर होने वाले आक्रमण का हर राष्ट्रभक्त को मुकाबला करने के लिए तैयार होना चाहिए। आप सब लोग आये आपने यहाँ ध्वज का पूजन वंदन किया। इस सांस्कृतिक प्रतीक को आपने गुरु स्थान पर, सम्मान के स्थान पर हमने दिया तो सांस्कृतिक प्रतीक की, ये जो संस्कृति की धारा है, ये विश्वव्यापी बने, विश्व के अंदर इसका सम्मान हो, साड़ी दुनिया भारत माता की जय-जयकार करे ऐसे समाज का निर्माण करने में आप सबका सक्रिय सहयोग मिले। इतना ही निवेदन है।
आज से १०० वर्ष पहले बंगाल प्रान्त का मजहब के आधार पर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने विभाजन किया और उस विभाजन के विरूद्ध हमारा समाज जिस वीरता के साथ खड़ा हुआ, लड़ा। आज हम सब लोग उसको स्मरण करने के लिए इकट्ठा हुए हैं और स्वाभाविक है कि उस संघर्ष में जिन बलिदानियों का बलिदान हुआ सर्वप्रथम हम उनको श्रद्धांजलि देते हैं, स्मरण करते हैं। अंग्रेजों के विरुद्ध ये जो संघर्ष की गाथा है इससे पहले भी इस देश ने लम्बी स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी है। दुनिया में एक लम्बे संघर्ष की आग में से तप कर हमारा समाज, हमारा राष्ट्र, हमारी देशभक्ति परिपुष्ट हुई है। जिस अंग्रेज के विरुद्ध हम संघर्ष की चर्चा कर रहे हैं उस उस अंग्रेज से बड़े साम्राज्य नहीं लड़े थे। जो लोग ये दावा करते हैं कि अंग्रेजों के आने से पहले हमारा इस देश पर कब्ज़ा था और इसलिए यहाँ की संपत्ति के वारिस हम हैं वो कैसे लड़े थे अंग्रेजों से इसका उदाहरण आपके ध्यान में आ जाता होगा कि ईस्ट इंडिया कंपनी को, अंग्रेज को इस धरती पर पैर ज़माने का जो सबसे महत्वपूर्ण अवसर मिला वो १७५७ में पलासी की लड़ाई थी। पलासी की लड़ाई में बंगाल का नबाब, जिस बंगाल के विभाजन की हम चर्चा कर रहे हैं वो बंगाल छोटा नहीं था उसमे आज का बिहार, आज का उड़ीसा और आज का असम सब कुछ शामिल था उसमे। सिराजुद्दौला उसके नबाब थे और अंग्रेजों से लड़ने के लिए पलासी के मैदान में, गंगा के तट पर इकट्ठे हुए थे और उन्ही का एक रिश्तेदार मीर जाफ़र, ये अंग्रेजों से जाकर मिल गया और अंग्रेजों से मिलने के कारण पलासी के मैदान में दोनों ओर की सेनाएं जब आकर खड़ी और लड़ी तो शायद विश्व के इतिहास का युद्ध इतिहास का एक घननात्तम था। आठ घंटे तक आमने सामने फौजें लड़ी। कुल मिलकर दोनों पक्षों के तीस लोग मारे गए। सेनाएं भाग गयीं सिराजुद्दौला हार गया। मेरे जाफ़र का षड़यंत्र जीत गया और बंगाल की भूमि पर ईस्ट इंडिया कंपनी का, अंग्रेज का शासन हो गया। हम लड़ेंगे। जिनको हम कहते हैं कि जिन्होंने इस देश पर साम्राज्य खड़े किये वो लड़े नहीं। दिल्ली के बादशाह बिना लड़े समर्पण कर गए। अवध के नबाब जूतियाँ ढूंढते रहे भाग नहीं पाए। कमरे में पकडे गए अपने महल के अंदर ही। इन्होने कही कोई लड़ा नहीं। लड़ा इस देश की स्वतंत्रता के लिए तो इस देश का समाज लड़ा, सामान्य जान लड़ा। जिस बंगाल के विभाजन की बात करते हैं १७५७ से लेकर १८५७ तक, अभी हमारे मुख्या अतिथि जी ने १८५७ की क्रांति की चर्चा की। १७५७ से लेकर १८५७ के १०० वर्ष के कालखंड के अंदर ब्रिटिश इतिहासकार स्वम् लिखते हैं एक भी दिन, मैं शब्दशः इस बात को उल्लेखित कर रहा हूँ की कोई एक भी दिन ऐसा नहीं गया जब भारत की भूमि पर अंग्रेजों को संघर्ष न करना पड़ा हो। लम्बे-लम्बे संघर्ष, राजस्थान में भीलों ने अंग्रेजों के खिलाफ २७ वर्ष लड़ाई लड़ी। ने ११ वर्ष लड़ाई लड़ी है। देश के कोने-कोने में संघर्ष हुआ है। गुजरात के बघेड़े ९ वर्ष लड़े हैं। देश के कोने-कोने में समाज के सामान्य व्यक्तियों ने, वनवासियों ने संघर्ष किया है, वलिदान दिया है। एक दिन भी हमने इस देश के, भारत माता के शत्रुओं को इस देश की धरती पर चैन से नहीं रहने दिया है। और जिस १८५७ के संघर्ष की बात की वो भी इस देश का जन-आंदोलन था। आम जनता लड़ी थी। आम जनता ने संघर्ष किया था। छोटा संघर्ष नहीं था। देशव्यापी संघर्ष था। अंग्रेजों की सेना में जो भारतीय अंग्रेजों के साम्राज्य वृद्धि के लिए नौकरी के लिए भर्ती हुए थे उनमे से ढाई लाख सैनिक अंग्रेजों का साथ छोड़कर बारम्बार आये। उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया, बलिदान किया। अंग्रेजों का इतिहास गवाह है कि उसमे से एक लाख भारतीय सैनिक युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। राजे-महाराजे देशी राजा -रियासतें तो लड़ ही रहे थे। नाना पेशवा, तात्याटोपे, लक्ष्मीबाई, बेगम हज़रात महल, वीर कुंवर सिंह, ऐसे देश के अनेक नाम हम स्मरण कर सकते हैं १८५७ की क्रांति की कथा में। उन सबने तो संघर्ष किया ही लेकिन एक लाख सैनिकों ने संघर्ष किया। गांव- गांव के किसान ने संघर्ष किया। कभी पटना से बनारस होकर इलाहबाद और कानपूर तक आने वाली गंगा के दोनों ओर के गांव जनरल नी की तोपों का शिकार हुए थे। गांव के गांव नष्ट कर दिए गए थे। इसका उल्लेख है। इन एक लाख लोगों के बलिदान से, ग्रामीण समाज के बलिदान से हमने अंग्रेजों से लड़कर एक लाख वर्गमील जमीन हमने अंग्रेजों से छीन ली थी १८५७ में। चार करोड़ भारतीय इस संघर्ष में किसी न किसी रूप में भागीदार रहे, ये ब्रिटिश इतिहासकार उल्लेख करते हैं। कोई सामान्य संघर्ष नहीं था। जिन जिन क्रांतियों के हम उदाहरण दे रहे थे वहां भी शायद ऐसे सामान्य जन की सहभागिता रही होगी या नहीं, ये मैं नहीं जानता। चार करोड़ भारतीय जिस संघर्ष में लड़े वो १८५७ की क्रांति थी। और क्रांति उनकी सांस्कृतिक बुराइयों के लिए, साम्राज्य के लिए लोग नहीं लड़ रहे थे। गौ माता की रक्षा के लिए लड़ रहे थे। गाय और सूअर की चर्बी के कारतूस हम नहीं स्वीकार करेंगें। सेना के अंदर जो ब्रिटिश पादरी आकर भारतीय सिपाहियों को ईसाईकरण कर रहे थे उससे असंतोष खड़ा हुआ था। हम अपने सांस्कृतिक मूल्यों के लिए लड़ रहे थे। और इस लड़ाई में समाज का सामान्य वर्ग या समाज के सामान्य वर्ग से आने वाला सैनिक, किसान इन्होने भी भागीदारी की थी। माताओं -बहनों ने भी बलिदान दिया था। १८५७ की क्रांति जिस अर्थ में सफल होनी चाहिए, हुई कि नहीं हुई ये मूल्याङ्कन इतिहासकार करें लेकिन १८५७ की क्रांति ने अंग्रेज को इस देश ने बता दिया कि इस देश में ऊपर से चाहे जितनी भीरुता और भिन्नता दिखाई देती हो लेकिन इस देश की आतंरिक एकता सुदृढ़ है और इस देश का समाज अपने जीवन मूल्यों के लिए, अपनी धर्म- संस्कृति के लिए किसी भी कीमत तक बलिदान करने के लिए तैयार है, ये १८५७ की क्रांति का सन्देश था। भारत अमेरिका नहीं है, भारत ऑस्ट्रेलिया भी नहीं था, भारत यूरोप भी नहीं था जहाँ पर ईसाईयों की सेनाएं गईं और उन्होंने अत्याचार और दमन के बल पर उनको ईसाईकरण कर दिया। भारत का उनका ईसाईकरण सफल नहीं हो पाया। आपको मालूम होगा कि १४५२ में कोलंबस पहुँचा था अमेरिका। १४५२ में कोलंबस के पहुचते समय अमेरिका महाद्वीप में रहने वाली विशिष्ट जातियां थी, उनकी विशेष सभ्यताएं थीं। उनको तोपों और बंदूकों के बल पर कब्जाने के बाद यूरोप के लोगों ने वहां ईसाईकरण की प्रक्रिया शुरू की। और ये ईसाईकरण की प्रक्रिया चली कब तक ? और कैसी थी इसका उल्लेख अगर ढूँढना है तो चर्च के डाक्यूमेंट्स में अपने को मिल जायेगा। चर्च कहता है कि १४५२ में कोलंबस के पहुंचने के बाद १५०० ईस्वीं में अमेरिका महाद्वीप में रहने वाले वहां के स्थानीय नागरिकों की जनसँख्या लगभग नौ करोड़ थी। इन नौ करोड़ लोगों का ईसाईकरण होना शुरू हुआ और उसके चलते जो जहाज भर-भरकर सैनिक आते थे वो अपने साथ उन्ही के शब्दों में जो उन्होंने लिखा है जैसे खरगोशों का शिकार किया जाता है वैसे गांव को घेरते थे, वहां के नागरिकों का शिकार करते थे। जो पकड़ा जाता था उसको गुलाम बनाकर बाज़ारों में बेच दिया जाता था, उनको गुलामी इसे बनने के लिए प्रेरित किया जाता था और जो इसे नहीं बनते थे, ईसाई बनने को तैयार नहीं होते थे वो मार दिए जाते थे। ऐसे लोगों के हत्याकांड चले। चर्च के दस्तावेज कहते हैं कि १५०० ईस्वीं में अमेरिका महाद्वीप में नौ करोड़ जनसँख्या थी। १०० वर्ष के बाद १६०० ईस्वीं में अमेरिका महाद्वीप की जनसँख्या पौने तीन करोड़ रह गई थी यानी अगर जनसंख्या वृद्धि की दर शून्य भी मान ली जाये तो अमेरिका का ईसाईकरण करने के लिए स्व छह करोड़ वहां के नागरिकों की हत्या की गई। आज का अमेरिका वो यूरोपियों का, साम्राज्यवादियों का उपनिवेश है। वहीँ के लोगों का बहुमत है और वहां के जो स्थानीय नागरिक हैं वो कहीं सिमट कर कही छोटी सी एक सीमा में रह गएँ हैं। ये आज देश का, ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले वहां के लोग तो बचे ही नहीं। महावारी नाम की जाति थी, यज्ञ करते थे, वो शिव के भक्त थे वो नष्ट कर दी गई। आज ऑस्ट्रेलिया के पुरे के पुरे नागरिक यूरोप से गए लोग हैं, उनका उपनिवेश हैं। उन्होंने अपनी सेना के बल पर जहाँ-जहाँ साम्राज्य खड़ा किया वहां पर उन्होंने घोर ईसाईकरण का काम किया। १८५७ ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत ऑस्ट्रेलिया अमेरिका नहीं है। यहाँ के लोग अपनी धर्म-संस्कृति, जीवन मूल्यों के लिए बलिदान करेंगें और इसके चलते १८५७ उसको हम असफल नहीं कह सकते, वो सफल हुआ क्योंकि अंग्रेजों को अपना यह कदम वापस लेना पड़ा। लेकिन इसके बाद भी लगातार और लगातार संघर्ष चले और उन संघर्षों में क्या हुआ ये हम सबको मालूम ही है। भारत की स्वतंत्रता के लिए फिर से संघर्ष करने का काम ये समाज के अंदर उस भावना को खड़ा करने का काम जो भावना साम्राज्य नहीं खड़ा कर सके उसके लिए फिर से खड़ा होना पड़ा इस देश के सन्यासियों को। १८५७ में क्रांति १८५९ आते आते समाप्त हो गई रानी विक्टोरिया यहाँ की महारानी बन बैठीं। ईस्ट इंडिया कंपनी का साम्राज्य खत्म हो गया। लेकिन संघर्ष खत्म नहीं हुआ। संघर्ष के लिए खड़े हो गए पंजाब में कोई सतगुरु राम सिंह कूका, वो कूका आंदोलन वहां से प्रारम्भ हो गया। उसी काल के खंड के अंदर १८६३ से १८७३ के उस ११ वर्ष के कालखंड के अंदर बंगाल में सन्यासियों ने संघर्ष किया है। उस समय देश के अंदर भीषण अकाल पड़ा हुआ था और अकाल ये मनुष्य निर्मित था। कंपनी सरकार की दुर्व्यवस्था के कारण निर्मित हुआ था। और उस सब के विरूद्ध जिन सन्यासियों ने संघर्ष किया उस संघर्ष की गाथा आनंद मठ है, ये हम सबको मालूम है। वो जो विभानंद और जीवानंद और जितने नाम हैं वो सब सन्यासियों के नाम हैं। उस सन्यासी विद्रोह जिसको बोलते हैं वो स्वतंत्रता संग्राम था और उस संग्राम की यह कहानी है और इसलिए १८५७ के बाद भी संघर्ष चला है इस देश के कोने कोने में संघर्ष चला है। संघर्ष कितना व्यापक था कि १८५७ के समय जो इटावा के डिप्टी कलेक्टर थे मि. ए एच ह्यूम, वो १८६८ से ७४ तक भारत में गृह सचिव रहे थे, ICS थे। इन आठ वर्ष के कालखंड में देश के कोने-कोने में अंग्रेजों के विरूद्ध जो संघर्ष चल रहा था इसकी छह हज़ार फाइल उनके सामने से गुजरी। ए एच ह्यूम कहते हैं कि देश के कोने-कोने में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लावा उबाल रहा था और अगर उसको संभाला नहीं गया तो ब्रिटिश साम्राज्य ही डूब जायेगा। भारत में राज्य नहीं, ब्रिटिश साम्राज्य ही डूब जायेगा। और इसीलिए उस समय के वायसराय लायल दुफ्फ्लिंग के साथ बैठकर इस देश के अंदर ब्रिटिश साम्राज्य को स्थायित्व देने के लिए उन्होंने कुछ प्रयोग शुरू किये। कुछ पहले शुरू कर दिए गए थे, कुछ इस समय शुरू किये गए पहले से शुरू किये गए प्रयोग तो हमको मालूम ही हैं। मैकाले नाम के एक विद्वान ने अपनी शिक्षा पद्यति भारत पर लागू की और उनको उससे कल्पना थी कि उनके द्वारा जो उनकी शिक्षा पड़्यै से निकल कर लोग आएंगे। तो उसको लगता था कि शायद वो काली चमड़ी के अंग्रेज होंगे। वो उनके साम्राज्य के लिए हित्पोषक होंगे लेकिन भारत की धरती, उसकी एक विशेषता है। और भारत की धरती पर ईस्ट इंडिया कंपनी से, मैकाले की शिक्षा पद्यति के आधार पर जो पहला स्नातक हुआ उसी ने ब्रिटिश साम्राज्य की मैकाले पद्यति से अपना लाभ होने की जो अपेक्षा की थी उसे ध्वस्त कर दिया। भारत में पहला स्नातक बना मैकाले की शिक्षा पद्यति से, उसका नाम हम सबने सुना है वो नाम था बंकिम चंद चट्टोपाध्याय। भारत का पहला स्नातक, पहले डीएम। वही बंकिम चंद जो BA करते ही उनको डिप्टी कलेक्टर बना दिया गया जिस रोज उनका परीक्षाफल निकला। लेकिन वो बुद्धिमान थे, देश भक्त थे, भारत की धरती की मिटटी से जुड़े हुए थे और इसलिए उनको ये बात ध्यान थी कि ब्रिटिश साम्राज्य उनको पद देकर उनसे क्या काम करना चाहता है उसके लिए वो तैयार नहीं थे और इसलिए वो डिप्टी कलेक्टर इस नाते से ही भर्ती हुए और डिप्टी कलेक्टर इस नाते से ही उनको अपनी नौकरी छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। ये वहीँ बंकिम चंद हैं जिनके वन्देमातरम का हम सब गान कर रहे हैं जिन्होंने आनंदमठ लिखा है। ये भारत के पहले स्नातक हैं। और इसलिए सारी को ऐसा लगता था कि ये सब जो पड़े-लिखे लोग हैं ये उनके अनुकूल खड़े हो जायेंगे। भारत की धरती पर यह भी उनके लिए संभव नहीं हो पाया। और इसलिए इस देश के अंदर अपने लिए अनुकूलता खड़ा करने का काम, उसके लिए उन्होंने भारत के अंदर कई विभाजनकारी काम प्रारम्भ किये और उसमे से सबको मालूम है कि उन्होंने भारत के बनवासी समाज को यहाँ की मूल धारा से अलग करके कहा कि ये तो एनिमिस्ट हैं, पशु-पक्षियों की पूजा, प्रकृति की पूजा करने वाले लोग हैं। ये यहाँ हिन्दू नहीं गिने जा सकते इनको अलग कर दिया और उनको इनर लाइन परमिट से घेर दिया गया कि उनके पास कोई जाये नहीं, उनके साथ कोई संपर्क रख न सके। आज भी नागालैंड, मेघालय, मिजोरम, अरुणांचल आपको जाना है तो वहां इनर लाइन परमिट लागू है। वहां की सरकार की आज्ञा-अनुज्ञा के बिना आप वहां प्रवेश नहीं कर सकते । आपका बड़े से बड़ा धर्माचार्य, शंकराचार्य उस क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकता, विदेशी पादरी जाने के लिए मुक्त हैं। ये उन्होंने हमारे बनवासी समाज, जो उनसे संघर्ष कर रहा था, स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था उसको काटने का काम किया। केशधारीबंधु, सिख बंधू हमारे समाज की, भारत की खड्गधारी भुजा थे। उसमे एक अंग्रेज आईपीएस अफसर की नियुक्ति की गई। वो मि. मैकलिस जो थे, उन्होंने अमृतसर के समुद्र में जाकर अमरिंदर साहब ने अमृत छका, अपने को मैकेलिस्टिंग घोषित किया। वही पहला व्यक्ति था जिसने ये घोषणा की कि सिख हिन्दू नहीं हैं। पहली पुस्तक उसी ने लिखी। हिन्दू समाज से अलग हैं ये क्योकि इनका गुरुद्वारा अलग होता है, इनकी पूजा पद्यति अलग होती है। सिखों के लिए अलग स्थान की बात ये अंग्रेज आईपीएस अफसर उसके लिए लगाया गया। एक अंग्रेज पादरी को लगाया गया कि मुसलामानों को जो १८५७ की क्रांति में, आज़ादी में साथ-साथ लड़े थे उनको काटने के लिए मि. बेक नाम के पादरी को आगे किया गया और सर सैयद अहमद नाम के एक नेता को सामने लाकर उन्होंने उसको अलीगढ में अलीगढ मुस्लिम स्कूल खड़ा किया जो बाद में मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में खड़ा हुआ और पाकिस्तान के निर्माण की भूमिका जिसने बनाई वो भी एक अंग्रेज आईपीएस अफसर और एक अंग्रेज पादरी के साथ मिलकर बनाया। अंग्रेजों ने इस देश को विभाजित करने के कई प्रकार के कदम उठाये। उसमे उन्होंने ये जो आज भी कई लोग बड़ी चर्चा करते हैं कि देश में द्विराष्ट्रवाद का जनक कौन है। १८८६ में सैयद अहमद पहले व्यक्ति थे जिन्होंने मेरठ में ये भाषण दिया था सार्वजनिक सभा में कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग जातियां हैं, दो अलग नेशन हैं, दोनों एक साथ एक साम्राज्य में मिलकर रह नहीं सकते और इसलिए मुसलमान को एक अलग पहचान चाहिए, अलग राज्य चाहिए 'two nation theory’के जो प्रारम्भकर्ता थे वो सर सैयद अहमद ये १८८६ में बोल रहे थे। और इसलिए ये जो सारे देश को बाटने-काटने की नीति थी, षड़यंत्र था उसी के अंतर्गत उन्होंने और भी कई सारे प्रयोग किये, उसके लिए ICS ऑफिसर्स लगाए। मैंने कहा कि भारत के वो गृह सचिव थे उन्होंने लार्ड डफलिंग वायसराय के साथ बैठकर ये योजना की कि इस देश में उनके लिए अनुकूल बनाये रखने के लिए जो देश भर में आज़ादी के लिए वातावरण बना हुआ है, लावा उबाल रहा है इसके लिए कोशिश करनी चाहिए नियंत्रित करने के लिए और उसी को लेकर १८८५ में ह्यूम साहब ने इंडियन नेशनल कांग्रेस के नाम से बुद्धिजीवी, पढ़े-लिखे लोगों का एक मंच निर्माण किया जिसका उद्देश्य ही था अंग्रेजों के लिए बफादार प्रजा का निर्माण करना। देश को बांटने के कई षड़यंत्र उन्होंने खड़े किये, ये उनके उदाहरण हैं और इसी के चलते उन्होंने देश में जिन क्षेत्रों से उनको व्यापक विद्रोह की या व्यापक विरोध की सम्भावना थी उनको काटने की कोशिश की। जैसे निज़ाम से जब विदर्भ का इलाका छीना अंग्रेज ने तो वो सारा मराठीभाषी क्षेत्र था लेकिन उसको महाराष्ट्र में नहीं मिलाया गया, बम्बई प्रेसीडेंसी एरिया में। उसको मिलाया गया सीपी में, जो मध्य भारत कहलाता था, उस मध्य भारत में, मराठीभाषी विदर्भ को मिलाया गया इसलिए क्योकि उसका वर्णन करते हुए वो लिखते हैंकि वहां पर अगर ये जायेंगे तो पुणे की ताकत बढ़ेगी। शिवजी के अनुयायिओं की संख्या एक प्रान्त में बढ़ जाने से कल हमारे लिए संकट खड़ा हो सकता है इसलिए महाराष्ट्र का बंटवारा होना चाहिए, मराठी भाषियों का बँटवारा होना चाहिए। इसी योजना के तहत बंगाल जो एक स्वभिमानी राष्ट्र था, स्वभिमानी प्रान्त था उसके बाँवरे की उन्होंने कोशिश की और उस बंटवारे की योजना प्रारम्भ तो पहले से ही उनकी कल्पना में थी लेकिन १८९९ म जब कर्जन वायसराय होकर भारत आया तो वहां से ये चर्चा शुरू हुई। उसने पहले विदर्भ को महाराष्ट्र से निकाल कर सीपी में मिलाया और बाद में इस्को विभाजन की योजना १९०३ से प्रारम्भ हो गई थी। १९०३ में पत्र व्यवहार शुरू होते ही इसका विरोधाभास शुरू हो गया था और हमको मालूम है कि ४ जुलाई १९०५ को हाउस ऑफ़ कॉमन यानि इंग्लैंड की लोकसभा के अंदर ये घोषणा हुई कि बंगाल का विभाजन किया जाएगा। बंगाल में से बांग्लाभाषी जो ढाका, मेननपुर के क्षेत्र थे इसको असम में मिलाया जायेगा। जो ठेठ हिन्दीभाषी क्षेत्र थे, बिहार, उड़ीसा, उसको बंगाल से अलग नहीं किया जायेगा यानी बांग्लाभाषियों को बाँट देना और बंगाल के अंदर बंगालियों की संख्या घटा देना। पूर्वी बंगाल ये मुस्लिम बाहुल्य था इसलिए मुलिम बाहुल्य प्रान्त एक अलग बनाना और शेष जो पश्छिम बंगाल था, जो हिन्दू बाहुल्य था। ऐसे मजहब के आधार पर पूर्वी बंगाल को काटकर एक अलग राज्य के रूप में खड़ा कर देना ये अंग्रेज का एक षड़यंत्र था। जैसे ही इसकी चर्चा शुरू हुई तो १९०३ से इसका विरोध होना शुरू हो गया था। ४ जुलाई को ये हाउस ऑफ़ कॉमन्स में पास हुआ। ६ जुलाई को बंगाल के अखबारों में घोषित हुआ। ७ जुलाई को वायसराय ने शिमला प्रेस का नोटिफिकेशन जारी कर दिया कि १६ अक्टूबर को बंगाल का मजहब के आधार पर बंटवारा हो जायेगा। पूर्वी बंगाल जिसका केंद्र ढाका होगा ये मुस्लिम बाहुल्य होगा और पश्चिमी बंगाल जिसका केंद्र कलकत्ता होगा ये हिन्दू बाहुल्य होगा। ऐसे दो राज्यों में बंटवारे की उन्होंने घोषणा कर दी। इस घोषणा के होते ही, जुलाई के मॉस में ये सारा होना शुरू हो गया था, ४ जुलाई को घोषणा हुई, ७ जुलाई को अधिसूचना जारी हुई तुरंत बाद ही जगह-जगह इसके विरोध प्रदर्शन, इसके कार्यक्रम होना शुरू हो गया। १४ जुलाई, १७ जुलाई, २७ जुलाई ये सब तिथियां उसमे याद करने योग्य हैं। आज जब ३१ जुलाई को हम लोग इकट्ठे हुए हैं। ३१ जुलाई भी इस बंग-भंग आंदोलन की एक विशेष तिथि थी। जिस दिन कलकत्ता -पास के सभी इलाकों के तीस हज़ार से अधिक विद्यार्थी इकट्ठे हुए। और इस आंदोलन को विद्यार्थी चलाएंगे ऐसा विद्यार्थियों ने घोषणा की और बंगाल के हाई स्कूल तक के जितने भी संस्थान थे, कॉलेजेस और हाई स्कूल्स में ये संघर्ष समिति बना ली गई ३१ जुलाई १९०५ को। ७ अगस्त को आंदोलन का स्वरुप क्योकि ७ जुलाई नोटिफिकेशन हुआ था, ७ अगस्त को वहां पर एक बड़ी सभा हुई और उस सभा के माध्यम से इसके विरोध का घटनाक्रम शुरू हुआ और वो विरोध में तरह-तरह से क्या विरोध का स्वरुप हो सकता है ये घटनाएं हम सबने विस्तार से सुनी जानी होंगी क्योकि लोगों ने कहना शुरू किया कि आखिर अंग्रेज इस देश में आया काहे के लिए, व्यापारी बनकर, व्यापार करने के लिए। और जब तक इस देश में अंग्रेज का व्यापार चलने देंगे वो मुनाफा यहाँ से कमाता रहेगा तब तक वो छोड़कर नहीं जायेगा और इसलिए अंग्रेज को अगर ठीक करना है तो यहाँ से उसका मुनाफा समाप्त करना चाहिए, यहाँ से उसका व्यापार बंद करना चाहिए। उसमे से बहिष्कार का आंदोलन प्रारम्भ हुआ और उसमे से जिसको स्वदेशी का भाव कहते हैं वोस्वदेशी का आंदोलन गति पकड़ा। स्वदेशी का आंदोलन तभी नहीं शुरू हुआ उससे पहले चल रहा था। अमृतसर मेला और हिन्दू मेला के नाम से राजबहादुर बासु, ऋषि अरविंद के नानाजी उसको चला रहे थे। लेकिन इस आंदोलन का ये स्वरुप कि अंग्रेजों का हम कोई सामान न खरीदेंगें देंगे, ये प्रारम्भ हुआ। सबसे पहले पुणे के एक विद्यालय में विदेशी सामान की होली जलने वाले विद्यार्थी इकट्ठे हुए। विनायक दामोदर सावरकर नाम के एक विद्यार्थी ने लोकमान्य तिलक जो पूर्णा के एक सर्व मान्य राष्ट्रीय नेता थे उनको बुलाकर विद्यालय परिसर में विदेशी सामान की होली जलाई गई। और उस होली जलने पर सावरकर पहले व्यक्ति थे जिनको २० रुपये का अर्थदण्ड देना पड़ा। अर्थदंड की सजा हुई और न देने पर विद्यालय से निष्काशन हो गया था। ये आंदोलन शुरू हुआ लोगों ने दिये दिए उन्होंने कहा कि ये आंदोलन की गति, ये वन्देमातरम उस आंदोलन का प